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"अस्तित्व की एक परछाईं"

"अस्तित्व की एक परछाईं"

तुम
उस अधूरी ख़्वाहिश की तरह हो
जो पूर्णता की आकांक्षा नहीं करती,
केवल उपस्थित रहती है—
जैसे आत्मा में शेष रह गई कोई रेखा,
जो मिटती नहीं, पर लिखी भी नहीं जाती।


तुम
न तो मेरा अतीत हो,
न ही भविष्य,
बल्कि
एक क्षण—
जो समय के बोध से परे,
मुझमें ठहरा है।


मैंने तुम्हें
कभी पाने की चाह में नहीं जिया,
बल्कि तुम्हारे अभाव में
अपने होने का अर्थ खोजा।
तुम्हारा न होना
ही मेरी अनुभूति का केंद्र बन गया।


तुम
वह प्रश्न हो
जिसका उत्तर नहीं चाहता मैं,
क्योंकि उत्तर की प्राप्ति
संभावना की मृत्यु होती है।


तुम्हारा अधूरा रहना
दरअसल पूर्णता का ही रूप है—
जैसे शून्य में ब्रह्म छिपा हो,
या मौन में सबसे ऊँचा स्वर।


ताउम्र
तुम मेरी चेतना में
एक स्पंदन बनकर रहोगे,
जो न बाहर की दुनिया में है,
न भीतर की परिभाषाओं में—
बल्कि
उस बिंदु पर है
जहाँ मैं और 'मैं' के परे का कुछ
एकाकार हो जाता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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