स्नेहमयी मातृत्व की प्रतिमूर्ति - माँ शारदा देवी

⇒ सुरेन्द्र कुमार रंजन
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब इस धरा पर धर्म की हानि हुई है तब - तब चारों तरफ अत्याचार, स्वार्थ, क्रोध, लोभ और पाप की काली छाया ने अपना साम्राज्य फैलाया है। अत्याचारियों के अत्याचार से त्रस्त मानव जाति ने अपनी रक्षा हेतु जब-जब भगवान को पुकारा तब - तब वे अपने भक्तों के उद्धार एवं धर्म की रक्षा हेतु रूप बदलकर इस धरा पर अवतरित हुए और साथ ही इनके कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अद्वितीय शक्ति की भी उत्पत्ति हुई थी। इसका प्रमाण मां सीता, विष्णुप्रिया राधा , यशोधरा जैसी आदर्श नारियाँ है जिन्होंने शक्ति बनकर अपने सहचर का साथ दिया था। ये आदर्श नारियां एक ही दिव्य शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियां थीं।
उन्नीसवीं सदी के मध्य भारतवर्ष की मातृजाति के प्रगति पथ पर उत्पन्न समस्या के समाधान के लिए वही दिव्य शक्ति माँ शारदा के रूप में अवतरित हुई जो भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस के दैवी कार्यों को सम्पन्न कराने में सहायिका सिद्ध हुई थी। तभी तो श्रीरामकृष्ण उनके संबंध में कहा करते थे," वह शारदा है, वह सरस्वती है, ज्ञान देने के लिए आई है, वह मेरी शक्ति है।"
माँ शारदा (श्रीमाँ) के जीवन में मानवीय और दैवीभाव का अद्भुत समन्वय था। आध्यात्मिक शक्ति के अतिरिक्त उनके मानवीय गुण इतने अधिक थे कि संसार की औरतों में उन्हें अनुकरणीय चरित्र बनाने में वे पर्याप्त थे। उनमें भारतीय नारीकत्व की विलक्षण पूर्णता थी। वे भूल से भी तुच्छ अथवा संकीर्ण वस्तुओं से अपना संबंध नहीं रखती थी। उनका जीवन सभी के लिए अनुकरणीय था।
इनके चरित्र में अन्य सभी गुणों को आच्छादित करने वाली सबसे बड़ी विशेषता थी उनका वात्सल्य ।उनका अद्भुत वात्सल्य प्रेम जाति, सम्प्रदाय अथवा भौगोलिक सीमा से परे था। उनका मातृस्नेह और इस संसार में दिखने वाला मातृस्नेह में काफी अंतर था। साधारण मातृत्व स्नेह दया, प्यार आदि से नियंत्रित था, जबकि श्री माँ का अपार स्नेह जाति-वर्ण ,दोष- गुण,सांसारिक अवस्था आदि द्वारा नियंत्रित नहीं होता था। इस प्रेममयी के पास जो एक बार आते वे माताजी के अपार पवित्र प्रेम और निःस्वार्थ प्यार में अपने को भूल जाते थे। माताजी बहुत लोगों की दोष-दुर्बलता को जानते हुए भी उसको स्नेह देती, उनके दुःख, शोक में हार्दिक सहानुभूति दिखाती । उनके इस सच्चे मातृत्व के प्रभाव से दुश्चरित्रों में भी परिवर्तन आ जाता था।
एक बार एक नवयुवक साधु श्री मां के यहाँ ठहरे। कुछ कार्यवश वे बाहर गए । उनके लौटते-लौटते संध्या हो गई। श्री माँ ने तब तक भोजन नहीं किया जब तक वे लौट नहीं आए। श्री माँ पुत्र के भोजन किए बिना स्वयं भोजन कैसे करती। जब शिष्य ने श्री माँ के इस अलौकिक वात्सल्य को देखा तो वह भाव विभोर हो उठा। ऐसा था श्री माँ का वात्सल्य प्रेम।
श्री मां के आदर्श मातृत्व के सामने सज्जन -दुर्जन का भेदभाव नहीं था। एक बार की बात है। श्री माँ के यहां एक मुसलमान मजदूर काम कर रहा था। था। खाना खाने के लिए श्री माँ द्वारा बुलाने पर वह बरामदे में जा बैठा। श्री मां की एक भतीजी नलिनी उसे खाना परोस रही थी। जातिगत संकीर्णता के कारण नलिनी कुछ दूरी से उस व्यक्ति की थाली में भोजन फेंकने लगी। श्री माँ ने भर्त्सना करते हुए अपनी भतीजी से कहा,"अरे इस प्रकार परोसने से क्या कोई भरपेट खा सकता है। " इतना कह वह स्वयं ही परोसकर उसे खिलाने लगी। जैसी तृप्ति उसे श्री मां के हाथों से कराई भोजन से मिली, वैसी पहले कभी नहीं मिली थी। जब भोजनोपरांत वह पत्तल उठाने लगा तो श्री मां ने मना कर दिया। उन्होंने स्वयं पत्तल उठाकर फेंका और उस जगह को साफ कर दिया। यह करते देख नलिनी चिल्ला उठी, "बुआ तुम्हारी जात गई।" श्री माँ बोली" चुप रह जैसा शरत (स्वामी शारदानंद) मेरा बेटा है वैसा ही यह भी है।" यही आदर्श मातृत्व है।
जो व्यक्ति पथभ्रष्ट हो चुके थे ,उन पर भी श्री मां के स्नेह और आशीर्वाद की धारा बरसती थी। एक ऐसी ही घटना इस बात की पुष्टि करता है। एक उन्नीस-बीस वर्षीय कन्या माँ के दरवाजे पर खड़ी सिसक रही थी। सिसकी की आवाज सुन माँ ने कहा , "कौन हो बेटी ? क्यों रो रही हो ? भीतर आ जाओ।" माँ के प्यार भरे शब्दों को सुनकर वह और जोर से रोते हुए बोली," नहीं माँ तुम मेरी बात सुनोगी तो मुझे अन्दर आने नहीं दोगी ,जैसे मेरी सगी माँ ने अन्दर आने नहीं दिया। मैं पतिता हूँ, गिर पड़ी हूँ , घरवालों ने मुझे निकाल दिया है।" श्री माँ सारा काम छोड़ कर बाहर आई और उसे अपनी छाती से लगा लिया और दीक्षा देते हुए कहा,"देखो, यदि संतान कीचड़ में गिरकर अपने को गंदा कर देता है तो क्या मां उसे फेंक देती है? नहीं, उसे गोद में उठाकर साफ करती है।यदि तुमने कोई बुराई किया है तो क्या हुआ? यदि तुम सच्चे अन्तःकरण से पश्चाताप करती हो तो सारा पाप धुल जाएगा।" क्या उनकी ये बातें आदर्श मातृत्व का परिचायक नहीं है ?
एक बार जब एक स्त्री-भक्त ने माँ से प्रश्न किया, " मैं आपको किस भाव से देखूं ।" माँ ने बड़े ही सहज ढंग से उत्तर देते हुए कहा था, " यदि तुम मुझे केवल अपनी माँ भर ही समझती रही तो इतना ही पर्याप्त है।"
यह सत्य है कि समस्त वसुन्धरा में उनके समान " माँ " शब्द से सम्बोधित की जानेवाली कोई भी माता नहीं। वे एक पतिपरागण पत्नी, पूर्ण संन्यासिनी, स्नेहशील माता और आदर्श गुरु के रूप में अद्वितीय थी। उनके तलस्पर्शी सरल, पवित्र करुणा और समर्पणशील जीवन में आधुनिक हिन्दुओं को अपनी संस्कृति में प्रतिष्ठित परिपूर्ण नारी-आदर्श के दर्शन होते हैं।
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