दण्ड समाज में आदर्श को प्राप्त करने का एक माध्यम- कुलाधिपति

- मिथिला विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का कुलाधिपति ने किया उद्घाटन
- मत्स्य न्याय की स्थापना के बजाए, धर्म और मर्यादा पर आधारित समाज का हो निर्माण- राज्यपाल

'स्मृति' की रौशनी में कालक्रमानुसार मान्यताओं की स्थापना हुई है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में अकेले दण्ड अथवा कानून नहीं है। प्रत्येक दण्ड- व्यवस्था अपने समकालीन परिदृश्य में निर्मित होते हैं। अतः हमें समालोचक की दृष्टि से अर्वाचीन व्यवस्था को तदयुगीन युग और समय के परिप्रेक्ष्य में ही देखना पड़ेगा। दण्ड तो काल, देश एवं युग के अनुसार परिवर्तनशील है। आचार परमो धर्मः के मार्ग का अनुगमन करते हुए हमें अपनी इच्छाओं में संयमित और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। संयम दण्ड के द्वार को बंद कर देता है। कुलाधिपति ने महाभारत के शांतिपर्व में भीष्म-अर्जुन संवाद के हवाले से आदर्श राज्य की प्रतिस्थापना पर बल दिया। राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन-सत्र में सनातनी परंपरा के अनुसार दीप प्रज्ज्वलन और कुलगीत गायन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। विश्वविद्यालय कुलपति प्रो संजय कुमार चौधरी ने सभी आगत अतिथियों का सहृदय अभिवादन करते हुए मिथिला की पावन भूमि पर राज्यपाल सह-कुलाधिपति के आगमन पर उन्हें स्नेहपूर्ण प्रणाम किया। कुलपति ने कुलाधिपति के आगमन को ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के लिए सौभाग्य का क्षण मानते हुए कहा कि नई शिक्षा नीति और भारतीय ज्ञान-परंपरा के आलोक में विश्वविद्यालय नित्य नए प्रतिमानों को गढ़ रहा है। स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम और मेरु योजना के अंतर्गत उन्नत शोध संस्थान की प्राथमिकता रही है।
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो लक्ष्मी निवास पांडेय ने इस संगोष्ठी के पटल पर रखे विषय की विद्वतपूर्ण विवेचना की। नारदसूत्र, मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में निहित सूत्रों द्वारा भारतीय पुरातन और आधुनिक दण्ड-व्यवस्था पर विचार रखें। उन्होंने कहा कि दण्ड से ही प्रजा शासित होती है और इसी में प्रजा का कल्याण भी निहित है। दण्ड धर्म है और धर्म विवेकपूर्ण कर्म। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची के पूर्व कुलपति प्रो तपन कुमार शांडिल्य ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि मानव समाज के लिए न्यायिक व्यवस्था का होना अनिवार्य है। अनुशासन बनाए रखने के लिए दण्ड की व्यवस्था ज़रूरी है। वर्तमान में भारतीय दण्ड संहिता में प्रतिशोध के बजाय न्याय, समानता की पुष्टि की गई है। दरभंगा नगर विधायक सह मंत्री, बिहार सरकार संजय सरागवी ने वैदिक, बौध ग्रन्थों, अर्थशास्त्र आदि भारतीय ग्रंथों के उद्धरण से दण्ड व्यवस्था पर विचार रखें। उत्तर प्रदेश से आगत वरिष्ठ समाजसेवी नरेन्द्र कुमार त्यागी ने आधुनिक भारतीय दण्ड व्यवस्था को प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का ही परिपक्व रूप स्वीकारा। आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में दरभंगा के सांसद डॉ गोपाल जी ठाकुर ने गर्मजोशी से भारत माता के आह्वान के साथ दरभंगा स्थित दोनों ही विश्वविद्यालयों को केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनाए जाने का पक्ष कुलाधिपति के समक्ष रखा। डॉ ठाकुर ने वेल स्ट्रक्चर्ड मखाना अनुसंधान केन्द्र के निर्माण के साथ ही विश्वविद्यालय में अक्तूबर माह में आयोजित होने वाले दीक्षांत समारोह में देश की महामहिम राष्ट्रपति के आगमन के लिए भी कुलाधिपति से करबद्ध निवेदन किया। उन्होंने भारतीय संविधान की लोकभाषा मैथिली और संस्कृत संस्करण कार्य में भी दोनों ही विश्वविद्यालयों के बुद्धिजीवियों की भूमिका की सराहना करते हुए भारतीय संविधान के अभिनंदन का सुअवसर प्रदान करने की भी जिज्ञासा माननीय राज्यपाल के समक्ष रखी। इस शुभ अवसर पर स्मारिका का भी विमोचन किया गया। उद्घाटन सत्र का संचालन वीएसजे कॉलेज, राजनगर मधुबनी के प्रधानाचार्य और संस्कृत के प्रोफेसर जीवानन्द झा ने किया। राष्ट्रगान के बाद सत्र की औपचारिक समाप्ति की घोषणा की गई। उद्घाटन- सत्र के बाद तीन तकनीकी सत्रों में एम के एस कॉलेज, चंदौना दरभंगा के प्रधानाचार्य प्रो सिद्धार्थ शंकर सिंह, बीआरए बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग की प्राध्यापिका प्रो निभा शर्मा तथा श्री लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली की व्याकरण विभाग की प्राध्यापिका प्रो सुजाता त्रिपाठी संसाधन पुरुष के रूप में उपस्थित रहें। इन तीन सत्रों में पचास से अधिक प्रतिभागियों/ शोधार्थियों ने शोध पत्र प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में संगोष्ठी के समन्वयक डॉ आर एन चौरसिया, आयोजन सचिव डॉ मोना शर्मा, संयुक्त सचिव डॉ ममता स्नेही तथा डॉ विनय कुमार झा, डॉ गजेन्द्र प्रसाद आदि की सक्रिय भागीदारी रही। समापन समारोह कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर देवनारायण झा की अध्यक्षता में हुई। समापन सत्र का संचालन डॉ कृष्णकांत झा ने किया। वहीं संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ घनश्याम महतो ने सभी के प्रति स्नेहिल धन्यवाद ज्ञापित किया।
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