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मानवधन

मानवधन

दिवा है शनिदेव की ,
महिमा बड़ी अपार ।
दे दे लेखनी में शक्ति ,
विघ्न हरो बेशुमार ।।
एक कल आनेवाला ,
दूजा कल गया दूर ।
तीजा कल तृप्त करे ,
जो प्यासा मजबूर ।।
अपनेपन की बात न ,
अपने पन की सोच ।
इधर उधर क्यूॅं उड़ता ,
दूजे पे मारे क्यूॅं चोंच ।।
शैशव बाल्य किशोर ,
युवा प्रौढ़ छोड़ जाए ।
एक बुढ़ापा आए तो ,
संग ही लेकर जाए ।।
समय धन व जवानी ,
कब किसका हो पाए ।
जिसने भी छूआ इसे ,
पानी में आग लगाए ।।
रावण चाह सीता हरे ,
राम चाह रावण प्राण ।
रावण चाहत मोक्ष की ,
राक्षस कुल से त्राण ।।
मानवधन है देवधन ,
अन्यधन सृष्टि होए ।
मानव में संस्कार नहीं ,
मानव पशुधन होए ।।


पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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