"रूह का मोची"
मैं हूँ —रूह का एक मूक शिल्पी,
जिसके हाथों में न व्यावसायिक औज़ार हैं,
न कल का कोई बंधन;
बस हैं —
स्मृतियों की जर्जर वीणा
और चेतना की सूनी गलियाँ।
नहीं टाँकता मैं वस्त्रों की सलवटें,
न चमड़े की सीमाओं में उलझता —
मैं तो सिलता हूँ उन अदृश्य विदारों को,
जहाँ आत्मा का रेशमी विस्तार
काल के काँटों से फट गया है।
जहाँ कहीं छूट गई है कोई सूक्ष्म पीड़ा,
जो अब स्वर नहीं —
मात्र एक
अनुकंपा-भरी कंपन बन
हृदय की गुहा में
निःशब्द बह रही है।
मेरे पास है सुई —
अंतर की अग्नि से जली हुई,
धागा —
विरह की काली रातों से काता गया,
और हाथ —
जिनमें काँपती है
मूक वेदना की आराधना।
पर नहीं मिलता वह सिरा —
जहाँ से उधड़ा है रूह का शांति-वस्त्र।
वह छोर छिपा है —
संवेदना की अरण्य-छाया में,
या संभवतः ईश्वर की
मौन दृष्टि के किसी कोमल कोने में।
मैं फिर भी टाँकता हूँ —
चेतना की टूटी वीणा के तार,
मन के जले पत्तों को
फिर से जोड़ता हूँ
कोमल प्रतीक्षा की ऊष्मा से।
मैं रचता हूँ दीप की बाती-सा
हर पैबंद में आशा,
हर टाँके में गूंजती
वेदना की वंशी —
जो कहती है धीरे से —
“यह भी एक साधना है।”
मैं हूँ —
रूह का मोची,
जो पीड़ा के धागों में
प्रेम का प्रभामंडल बुनता है,
और जो हर टूटी आत्मा में
एक नव प्रभात का गीत भर देता है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
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