"पीड़ा की प्रियसी"
नीरव नभ के नीचे खड़ी वह,बाधाओं से थकी-माँदी।
कँपते अधरों पर प्रश्न ज्यों हो,
दिशाएँ सब शून्य समान।
प्रतीक्षा में पल-पल बीती,
मन-मंदिर में उठती हूक,
चिर सजग नयनों से तकती
जीवन की बुझती सी फूँक।
चतुर्दिक तम की घनी छाया,
कंपित कर देती है प्राण,
किंतु अधरों पर फिर भी हँसती,
मन को रखती दृढ़-अटल जान।
बाहर है निशीथ की चादर,
भीतर हृदय में भी तम घना,
दोनों ओर फैला अंधियारा,
पर दीप जलेगा मन-वना।
पीड़ा की प्रियसी बन बैठी,
स्वप्न सँजोती मृदु आशाएँ।
आएगा वह स्वर्ण प्रभाती,
छँट जाएँगी सब शंकाएँ।
निशि बीतेगी, तम टूटेगा,
प्रभा भरेगी जीवन द्वार —
इसी आस में बैठी तटिनी-सी
नभ निहारती बारम्बार।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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