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धरती पर हमारा रोल हमारे स्वयं के चुनाव पर निर्भर है ।

धरती पर हमारा रोल हमारे स्वयं के चुनाव पर निर्भर है ।

सुबोध कुमार सिंह
  • सभ्यता का विकास मनुष्य की धूर्तता का विकास भी है !!
कहने को तो इस संसार में मनुष्य नाम के जीव ने स्वयं को धरती के अन्य सभी जीवों की अपेक्षा सबसे सभ्य व विवेकशील जीव घोषित किया हुआ है! किंतु वास्तव में जब हम इस विषय पर विचार करने बैठते हैं, तो हम यह पाते हैं कि मनुष्य ने केवल अपनी भौतिक सफलताओं को विकास का मापदंड समझा है। बहुत सारे मायनों में सभ्यता का विकास मनुष्य की धूर्तता, चालाकी और मक्कारियों का विकास है! उसकी कुटिलता का विकास है! भले ही हम अपने आप को इस धरती का सबसे सबसे सभ्य जीव मानते हैं। लेकिन स्वयं को यह उपाधि हमने स्वयं ने दी है! किसी अन्य जीव ने नहीं और यह भी सत्य है कि सभ्यता के इस विकास ने हमें जितना लोगों से जोड़ा है, उससे कई गुना लोगों से दूर भी किया है!


सभ्यता के आरम्भ में जिस प्रकार लोग कबीलों में रहा करते थे और संभवतः आपसी भाईचारे के साथ! क्या यह बात अपने आप में आश्चर्य की की बात नहीं है कि आज लाखों वर्ष पश्चात हम अपने घर में भी घर की तरह नहीं रह पाते! दो भाइयों में भी टूट हो जाती है। सच तो यह है कि सभ्यता के विकास ने हमें व्यक्तिगत प्रतिष्ठा नामक अपने आप में एक विचित्र सीख दी है! यह सीख अपने आप में हमारे सामूहिक और सामुदायिक जीवन के लिए क्या मायने रखती है, यह तो एक अलग ही शोध का विषय है! किंतु व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत धन की आकांक्षा ने हमें अपने ही लोगों के प्रति बुरी तरह प्रतिस्पर्धी बना डाला है और यह प्रतिस्पर्धा इस कदर है कि समाज के दूसरे लोगों को तो छोड़िए, अपने स्वयं के घर में भी यह प्रतिस्पर्धा लगातार दिखाई देती है! अपने लोगों के साथ में छीना झपट भी हमारी साभ्यतिक मौलिक और विवेकशील सोच है! जिसका कि कोई दूसरा जोड़ इस संसार में कहीं नहीं मिलता !


और तो और, इस व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत धन की आकांक्षा ने हमारे स्वभाव में ऐसा आमूल चूल परिवर्तन किया है कि हम दर्पण के सम्मुख खड़े होकर अपने आप को पहचान भी नहीं सकते हैं कि हम धरती पर अपना कौन सा किरदार निभाने आए थे और कौन सा किरदार निभा कर जा रहे हैं! एक्चुअली हमें अपने किरदार का, अपनी रूह का, अपनी आत्मा का तनिक भी नहीं पता है और इसके चलते हमने इस धरती पर सबसे बड़ी बात जो पाई है, जिस पर हम गर्व भी करते हैं, वह है अदाकारी ! लेकिन अदाकारी तो एक अलग एवं प्रतिष्ठित कला का नाम है! किंतु हमने अदाकारी नाम की इस कला को भी अपनी मक्कारियों के जाल में फंसा लिया है। हमारी अदाकारी के पीछे छुपी हुई कुटिलता, मक्कारी और धूर्तता और चालाकियां! यह एक अलग ही मुकाम है, जो केवल मनुष्य नामक ने व्यक्तिगत तौर पर अर्जित किया है और सफलता वह पड़ाव है, जिस पर पहुंचकर कोई व्यक्ति हीरो बनता है और वर्तमान समय में हीरोइज़्म का पर्याय केवल और केवल भौतिक सफलता हो चुकी है और इस भौतिक सफलता को पाने के लिए कोई भी येन-केण-प्रकारेण शीर्ष पर पहुंचने को व्याकुल है!


वास्तव में अब लोगों की प्रतिस्पर्धा इसी बात पर है कि कौन कितना कुटिल, मक्कार, चालाक और धूर्त हो सकता है! क्योंकि धन कमाने के लिए अब यही विशेष गुण अत्यंत आवश्यक हैं! देखा जाए तो ये शब्द भले ही अलग-अलग हैं, लेकिन सबका अर्थ दरअसल एक ही है! तो हम कहां जा रहे हैं? हम क्या कर रहे हैं? हम क्यों कर रहे हैं? हमें क्या करना है? हमें क्या करना चाहिए? लोगों से हमारे जुड़ाव किस तरह के होने चाहिए? लोगों से हमारे संबंध कैसे होने चाहिए? अब इस पर कोई विचार नहीं होता! उपरोक्त बातें अब केवल और केवल दर्शनशास्त्र का विषय भर रह गई हैं! अब इस पर कोई बातें भी करता है, तो वह पिछड़ी हुई मानसिकता का समझा जाता है और निःसंदेह दुनिया पिछड़े मानसिकता के लोगों के तो लिए कतई नहीं है! क्योंकि दुनिया को तो प्रगति करनी है ना! विकास करना है ना! इसलिए उसे प्रत्येक दिन प्रति व्यक्ति आय अथवा इसी तरह के अन्य तरह के आंकड़ों के अनुपात में आगे बढ़ते रहना है! अब ये आंकड़े हमारी आत्मा को कितना डुबोते हैं, कितना कुचलते हैं, कितना कचोटते हैं, इस पर विचार करने का हमें तनिक भी समय नहीं है और ना ही इस दिशा में अब हमारी कोई सोच जाती है!


तो अपने विकास के क्रम में मानव सभ्यता भले ही अनेकानेक भौतिक पड़ावों को पार कर चुकी हो और यहां तक कि अंतरिक्ष में भी उसने अपना झंडा गाड़ा हो, किंतु मानसिकता के तल पर, चेतना के तल पर वह अपेक्षाकृत संभवत: पीछे ही गई है! भले ही कंप्यूटर के आविष्कार के पश्चात मनुष्य ने तकनीकी मापदंडों पर न जाने कितने ही उत्कर्षों को छुआ हो और ऐसा माना जाने लगा हो कि मनुष्य बुद्धिमत्ता के उच्चतम शिखर पर है! किंतु इस शिखर ने उसे व्यक्तित्व की वह गहराइयां और वह ऊंचाइयां प्रदान की है अथवा नहीं, यह भी एक गंभीर मंथन का विषय है! तो दुनिया इस प्रकार न जाने कहां जा रही है और इसका अंत कहां जाकर होगा ? यह अब शायद ईश्वर भी नहीं बता सकता !


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