सावन आया मनभावन आया ,
साजन आया पति मन भाया ।सावन बन गया स्वयं नवसा ,
सहबाला बादल ही बन पाया ।।
चकाचौंध थी बिजली बनी ये ,
कड़क रहे थे खूब ये ठनके ।
बाराती सारे ही लुप्त हुए थे ,
वर्षा दुल्हनिया ये आई बनके ।।
वज्रपात बहुत ही हो रहे थे ,
जैसे शिव की हो यह लीला ।
सर्प बिच्छू सब बने बाराती ,
जैसे शिव ने सबको है ढीला ।।
वर्षा रानी चली हैं व्याहकर ,
नभमंडल कर रहे हैं बिदाई ।
चल पड़े अब सावन नवसा ,
लेकर संग में अपनी लुगाई ।।
सावन सजा तो नवसा बना ,
बिन सजे लगता है वन सा ।
सावन वन सा या हो नवसा ,
सावन गरजता सदा घन सा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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