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नागपंचमी और नाग संस्कृति

नागपंचमी और नाग संस्कृति

सत्येन्द्र कुमार पाठक
पौराणिक कथाओं के अनुसार, नागवंश के संस्थापक फणि मुकुट राय माने जाते हैं। उन्हें वाराणसी की पार्वती कन्या सकलद्वीपिया ब्राह्मण और नागराज तक्षक के वंशज पुंडरिका नाग का पुत्र बताया गया है। फणि मुकुट राय को मानकी और मुंडाओं द्वारा सुताम्बे का राजा चुना गया था। महाभारत और पुराणों में भी नागों की उत्पत्ति और नागवंश के बारे में उल्लेख मिलता है। महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू को एक हजार नाग पुत्रों की जननी बताया गया है, जिससे नागवंश की उत्पत्ति हुई। शेषनाग, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, कालिया आदि प्रमुख नाग देवता हैं जिनका वर्णन धर्मग्रंथों में मिलता है। नाग संस्कृति का सबसे प्रमुख पर्व नाग पंचमी है। यह हिन्दू कैलेंडर के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन नाग देवता या सर्प की पूजा की जाती है। नाग पंचमी का दिन नागों की पूजा करने से भय, रोग और अकाल मृत्यु से मुक्ति मिलती है।पर्व नागों के प्रति श्रद्धा, सम्मान और प्रकृति के प्रति संतुलन बनाए रखने का प्रतीक है।नाग पंचमी पर विशेष रूप से शेषनाग, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म जैसे प्रमुख नागों की पूजा की जाती है।नागों को दूध अर्पित करने से सर्पदंश का भय दूर होता है और परिवार की रक्षा होती है। हालांकि, उन्हें दूध पिलाने से पाचन संबंधी समस्या हो सकती है, इसलिए बांबी (नागों के निवास स्थान) की पूजा को अधिक महत्व दिया जाता है। नाग पंचमी सिर्फ एक धार्मिक पर्व ही नहीं, बल्कि यह जीव संरक्षण और प्रकृति से जुड़ाव का भी संदेश देती है। नाग संस्कृति भारत की सबसे प्राचीन और रहस्यमय संस्कृतियों में से एक है, जिसका प्रभाव भारतीय धर्म, कला और लोककथाओं में गहराई से मिलता है। यह केवल एक जनजाति या समूह तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी छाप छोड़ी है। नाग संस्कृति का उद्भव प्राचीन काल से जुड़ा है। पौराणिक ग्रंथों, जैसे महाभारत और पुराणों में नागों को एक शक्तिशाली और प्रतिष्ठित समुदाय के रूप में चित्रित किया गया है। मान्यता है कि नागों का निवास पाताल लोक में था, और वे दिव्य शक्तियों से संपन्न थे। नागवंशियों का प्रभाव भारत के विभिन्न क्षेत्रों में था। कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम, और दक्षिण भारत के कई हिस्सों में नागों के राज्यों और उनके प्रभाव के प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिए, छोटानागपुर पठार का नाम भी नागवंशियों के नाम पर पड़ा है, जहाँ फणि मुकुट राय को प्रथम नागवंशी राजा माना जाता है। नाग संस्कृति में नागों को अक्सर मानव रूप में या आधे मानव और आधे सर्प के रूप में दर्शाया गया है। वे सर्पों की तरह शक्तिशाली और रहस्यमय थे। उनके समाज में राजा, योद्धा और पुजारी जैसे वर्ग होते थे। नागों को जल स्रोतों, खजानों और पृथ्वी के संरक्षक के रूप में भी देखा जाता था।नागों का भारतीय धर्म और आध्यात्म में गहरा स्थान है:देवता के रूप में पूजा: नागों को अक्सर देवताओं के रूप में पूजा जाता है। भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन करते हैं, जो सृष्टि के आधार माने जाते हैं। भगवान शिव अपने गले में वासुकी नाग को धारण करते हैं।संरक्षक के रूप में: नागों को धन, खजाने और गुप्त ज्ञान का संरक्षक माना जाता है। मंदिरों और पवित्र स्थानों पर अक्सर नागों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं, जो उनकी सुरक्षात्मक भूमिका को दर्शाती हैं।प्रजनन और उर्वरता: कुछ संस्कृतियों में, नागों को प्रजनन और उर्वरता का प्रतीक माना जाता है।शक्ति और पुनर्जन्म: सर्प की केंचुल उतारने की प्रवृत्ति के कारण इसे पुनर्जन्म और अमरता का प्रतीक भी माना जाता है। रतीय कला, मूर्तिकला और साहित्य में नागों का व्यापक चित्रण मिलता है:कला और मूर्तिकला: प्राचीन गुफाओं, मंदिरों और स्तूपों में नागों के भित्तिचित्र और मूर्तियाँ मिलती हैं। बुद्ध की मूर्तियों में अक्सर उन्हें मुचलिंद नाग द्वारा संरक्षण देते हुए दिखाया गया है, जिसने बुद्ध को वर्षा और तूफान से बचाया था।
साहित्य: महाभारत में नाग लोक और नाग जाति का विस्तृत वर्णन है। कई लोककथाओं और कहानियों में नाग कन्याओं, नाग राजाओं और उनके जादुई शक्तियों का उल्लेख मिलता है।
नाग संस्कृति का सबसे प्रमुख पर्व नाग पंचमी है। यह सावन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन नाग देवताओं की पूजा की जाती है, उन्हें दूध अर्पित किया जाता है, और सर्प दोष से मुक्ति के लिए प्रार्थना की जाती है। यह पर्व नागों के प्रति आदर, भय और प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव को दर्शाता है । नागों को पवित्र और पूजनीय माना जाता है। कई ग्रामीण और जनजातीय समुदायों में नाग पूजा की परंपरा जीवित है। हालांकि, आधुनिकता के साथ, नागों के अंधविश्वासों से जुड़े पहलू कम हुए हैं, लेकिन उनका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बना हुआ है।नाग संस्कृति भारत की विविधता और इसके गहरे आध्यात्मिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हमें प्रकृति और उसके जीवों के साथ सद्भाव में रहने का संदेश देती है। नाग संस्कृति का एक समृद्ध और प्राचीन इतिहास है, जिसका प्रभाव न केवल भारत में बल्कि विश्व की कई सभ्यताओं में भी देखा जाता है। यह केवल एक जाति या कबीले से संबंधित नहीं थी, बल्कि एक व्यापक सांस्कृतिक और धार्मिक अवधारणा थी।नाग संस्कृति का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप में हजारों साल पुराना है। इसका उल्लेख सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक काल, महाकाव्यों (महाभारत, रामायण) और पुराणों तक में मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से हुई। उन्हें शेषनाग, वासुकी, तक्षक, कालिया जैसे प्रमुख नागों का पिता माना जाता है।शेषनाग को भगवान विष्णु के शयन का आधार और पृथ्वी का वाहक माना जाता है।वासुकी भगवान शिव के गले का हार हैं और समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में प्रयोग हुए थे।तक्षक महाभारत काल के एक शक्तिशाली नाग राजा थे, जिन्होंने राजा परीक्षित को डंसा था।नागवंशियों का शासन भारत के कई क्षेत्रों में फैला हुआ था, जिनमें कश्मीर, पंजाब, मथुरा, कन्नौज, मध्य प्रदेश (विदिशा, पद्मावती), ओडिशा और दक्षिण भारत शामिल हैं।छोटानागपुर पठार का नाम भी नागवंशियों के नाम पर पड़ा है, जहाँ फणि मुकुट राय को प्रथम नागवंशी राजा माना जाता है।
नाग राज तक्षक ने तक्षक नगर की स्थापना सतयुग मे की थी । तक्षशिला शहर का संबंध भी तक्षक नाग से जोड़ा जाता है। नागों को शिव और विष्णु दोनों से जोड़ा जाता है, जो उनकी व्यापक धार्मिक स्वीकृति को दर्शाता है।उन्हें धन, जल, प्रजनन, और पृथ्वी के संरक्षक के रूप में पूजा जाता था।नागों को अक्सर दिव्य शक्तियों से युक्त, रहस्यमय और कभी-कभी मानव रूप में भी वर्णित किया गया है।नाग पंचमी का पर्व आज भी नागों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। नाग या सर्प पूजा और उनसे जुड़ी मान्यताएं केवल भारत तक सीमित नहीं थीं, बल्कि विश्व की कई प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
प्राचीन मेसोपोटामिया में, सर्पों को उपचार, पुनर्जन्म और अमरता का प्रतीक माना जाता था। देवी-देवताओं के साथ सर्पों का चित्रण आम था।मिस्र में, उरास (कोबरा का प्रतीक) शाही शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक था, जिसे फिरौन के मुकुट पर दर्शाया जाता था।ग्रीक पौराणिक कथाओं में, सर्पों का संबंध चिकित्सा (एस्क्लेपियस का प्रतीक) और ज्ञान से था।सर्पों को भूमिगत दुनिया और पूर्वजों से भी जोड़ा जाता था।मध्य अमेरिकी सभ्यताओं में पंख वाले सर्प देवता (Quetzalcoatl) का बहुत महत्व था, जो सृजन, ज्ञान और हवा का प्रतीक थे।उनकी कला और वास्तुकला में सर्पों का व्यापक चित्रण मिलता है ।चीनी पौराणिक कथाओं में, ड्रैगन (एक प्रकार का नाग) को शक्ति, भाग्य और शाही अधिकार का प्रतीक माना जाता है।जापान में भी सर्पों को जल निकायों और कृषि की रक्षा करने वाले माना जाता है।
कई अफ्रीकी जनजातियों में सर्पों को पूर्वजों की आत्माओं और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक माना जाता है।विश्वभर की कई आदिवासी संस्कृतियों में सर्पों को पृथ्वी, जल और जीवन-चक्र से जोड़ा जाता है।
भारतीय पौराणिक कथाओं में भगवान शिव और भगवान विष्णु दोनों का नागों से गहरा संबंध है। यह संबंध उनकी दिव्य शक्तियों, ब्रह्मांडीय भूमिकाओं और प्रतीकात्मक महत्व को दर्शाता है।भगवान शिव को अक्सर "नागेंद्रहारा" कहा जाता है। उनके गले में लिपटा हुआ नाग वासुकी है, जो नागों के राजा हैं। इस संबंध के पीछे कई पौराणिक कथाएं और गहन प्रतीकवाद हैं:
समुद्र मंथन: पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवता और दानवों ने समुद्र मंथन किया, तो उसमें से 'हलाहल' नामक भयंकर विष निकला। इस विष की उष्णता से तीनों लोक जलने लगे। तब भगवान शिव ने सृष्टि की रक्षा के लिए उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। इस विष के प्रभाव को शांत करने के लिए वासुकी नाग ने अपने शरीर को शिव के गले में लपेट लिया। तभी से शिव नीलकंठ (नीले कंठ वाले) कहलाए और वासुकी उनके गले का आभूषण बन गए।
शक्ति और नियंत्रण का प्रतीक: शिव का विषधर नाग को धारण करना उनकी विष को पचाने और उस पर नियंत्रण रखने की अदम्य शक्ति को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि वे विकारों और बुराइयों पर विजय प्राप्त करने वाले हैं।
योगी स्वरूप: शिव एक योगी हैं, और नाग कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है, जो योग में जागृत होती है। शिव का नाग को धारण करना उनके योगिक स्वरूप और आध्यात्मिक शक्ति को भी दर्शाता है।शैव धर्म में नागों का महत्व: नाग जाति के लोगों ने ही सबसे पहले शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू किया था। वासुकी नाग शिव के परम भक्त थे, और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें अपने गणों में शामिल कर लिया। भगवान विष्णु का संबंध शेषनाग से है, जिन्हें 'अनंत' भी कहा जाता है। शेषनाग भगवान विष्णु के परम भक्त और सेवक हैं।शयन और आधार: भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की विशाल कुंडलित देह पर शयन करते हैं। शेषनाग ही उनके आसन, छत्र और सेवक के रूप में कार्य करते हैं। शेषनाग के हजार फन हैं, जिन पर वे भगवान विष्णु को छाया प्रदान करते हैं। सृष्टि का आधार: शेषनाग को सृष्टि का आधार माना जाता है। कहा जाता है कि वे ही पृथ्वी को अपने फन पर धारण किए हुए हैं। अनंतता का प्रतीक: 'अनंत' का अर्थ है जिसका कोई अंत न हो। शेषनाग की अनंतता ब्रह्मांड की अनंतता और समय के शाश्वत चक्र का प्रतीक है।अवतारों में भूमिका: जब-जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं, शेषनाग भी उनके साथ अवतार लेते हैं। उदाहरण के लिए, त्रेता युग में जब द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने राम का अवतार लिया, तब शेषनाग ने उनके छोटे भाई लक्ष्मण का रूप धारण किया। द्वापर युग में कृष्ण अवतार के समय, शेषनाग बलराम के रूप में अवतरित हुए। महर्षि कश्यप प्रजापति दक्ष की कई कन्याओं से विवाह किया था, जिनसे विभिन्न प्रकार के जीवों की उत्पत्ति हुई। उनकी पत्नियों में से कद्रू थीं, जिन्होंने इच्छा प्रकट की कि उन्हें हजार बलवान पुत्र हों। कश्यप ऋषि के वरदान से कद्रू ने हजार अंडों को जन्म दिया, जिनसे बाद में विभिन्न नागों की उत्पत्ति हुई। इन नागों में शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक प्रमुख थे।नागों का जन्म महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू के मिलन से हुआ, जिससे उनका वंश आगे बढ़ा और भारतीय पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया । महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू के पुत्रों ने नाग संस्कृति की नींव डाली। इन पुत्रों को नाग कहा गया, और उनके वंश को नागवंश के नाम से जाना जाता है।
कद्रू के प्रमुख पुत्रों में शेषनाग, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, कालिया आदि शामिल थे, जिन्होंने भारतीय पौराणिक कथाओं और इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नागवंशियों का प्रभाव भारत के विभिन्न हिस्सों में फैला, और उन्होंने अपने नाम पर कई स्थानों और साम्राज्यों की स्थापना की, जैसे छोटानागपुर। नाग संस्कृति में सर्पों को देवता के रूप में पूजा जाता था, और वे धन, जल और सुरक्षा के प्रतीक माने जाते थे। नाग पंचमी का पर्व आज भी इसी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
नाग संस्कृति, जिसका मूल रूप से अर्थ सर्प पूजा या नाग जाति/वंश से संबंधित प्रथाएं हैं, भारत के विभिन्न राज्यों में गहरी जड़ें जमाए हुए है। इसकी भूमिका धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से भिन्न-भिन्न रही है:
बिहार: बिहार में प्राचीन काल से नागों की पूजा होती रही है। 9वीं शताब्दी की नाग-नागी की पत्थर की मूर्तियाँ भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में मिलती हैं, जो बिहार शरीफ से प्राप्त हुई थीं। यहाँ नागों को अर्ध-मानव और अर्ध-कोबरा के रूप में दर्शाया गया है, जिन्हें शक्तिशाली और कभी-कभी मनुष्यों के लिए फायदेमंद माना जाता है।
उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश में नागों से संबंधित कई पौराणिक कथाएं और मंदिर मिलते हैं। मथुरा का संबंध प्राचीन नाग शासकों से रहा है। यहाँ नाग पंचमी का पर्व उत्साह से मनाया जाता है, जहाँ सर्पों की पूजा की जाती है। प्रयागराज में कुंभ मेले के दौरान नागा साधुओं का स्नान, भले ही सीधे तौर पर पौराणिक नागों से जुड़ा न हो, लेकिन यह एक प्रकार की धार्मिक संप्रदाय को दर्शाता है जिसमें नागा शब्द का प्रयोग होता है।
नागालैंड: यह राज्य अपने नाम से ही नाग संस्कृति से जुड़ा प्रतीत होता है। यहाँ की जनजातियों को सामूहिक रूप से नागा लोग कहा जाता है। हालाँकि, इन नागा जनजातियों की उत्पत्ति और उनकी सांस्कृतिक प्रथाएँ भारतीय पौराणिक नागों से भिन्न हैं। यहाँ की अधिकांश नागा जनजातियों की अपनी अलग बोलियाँ, रीति-रिवाज और परंपराएँ हैं। वे मूल रूप से कृषक थे और उनके जीवन में मौखिक संस्कृति (लोककथाएँ, कहानियाँ) का विशेष महत्व रहा है। ब्रिटिश मिशनरियों के आगमन के साथ, अधिकांश नागा अब ईसाई धर्म का पालन करते हैं, लेकिन उनकी पारंपरिक प्रथाओं और कलाओं में अभी भी उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की झलक मिलती है।महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में नाग पूजा का गहरा प्रभाव है। यहाँ कई प्राचीन गुफाओं जैसे अजंता और एलोरा में सर्पों से संबंधित कलाकृतियाँ मिलती हैं। नाग पंचमी यहाँ भी बड़े उत्साह से मनाई जाती है। नागों को अक्सर खेतों और खजानों का संरक्षक माना जाता है।बंगाल: बंगाल में नाग देवी मनसा देवी की पूजा बहुत प्रचलित है, खासकर सर्पदंश से बचाव के लिए। मनसा देवी को नागों की देवी माना जाता है और यह पूजा नाग संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।झारखण्ड: झारखण्ड में नागवंशी राजवंश का उदय हुआ, जिसने छोटानागपुर क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। फणि मुकुट राय को इस राजवंश का संस्थापक माना जाता है। नाग पूजा इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का केंद्रीय बिंदु थी, जिसके प्रमाण आज भी यहाँ के मंदिरों और लोककथाओं में मिलते हैं।
दिल्ली: दिल्ली में नाग संस्कृति का प्रत्यक्ष और विशिष्ट प्रभाव अन्य राज्यों की तरह उतना स्पष्ट नहीं है। हालांकि, दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में और उत्तर भारत में सामान्य रूप से नाग पूजा के अवशेष या पौराणिक संदर्भ मिलते हैं।राजस्थान: राजस्थान में भी नागों की पूजा का प्रचलन रहा है। यहाँ के कुछ लोक देवताओं जैसे गोगाजी को सर्प देवता के रूप में पूजा जाता है, जो सर्पदंश से रक्षा करते हैं। राजस्थान में भी नाग पंचमी का त्योहार मनाया जाता है।
मध्य प्रदेश: मध्य प्रदेश में 3री और 4थी शताब्दी में नाग राजवंशों का शासन था, जिनकी राजधानियाँ पद्मावती (आधुनिक पवैया, ग्वालियर) और विदिशा में थीं। इन नाग राजाओं ने अपने सिक्के भी जारी किए थे, जो इस क्षेत्र में उनके राजनीतिक प्रभाव को दर्शाते हैं।छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ में चिंदक नागवंशियों का शासन था, विशेषकर बस्तर और उसके आसपास के क्षेत्रों में। उन्होंने इस क्षेत्र में कई मंदिरों और कलाकृतियों का निर्माण करवाया, जिनमें नागों से संबंधित प्रतीक चिन्ह मिलते हैं।ओडिशा: ओडिशा में नाग पूजा (नाग पंथ) एक बहुत ही प्राचीन और व्यापक रूप से प्रचलित उपासना रही है। यहाँ के जनजातीय और ग्रामीण समुदायों में नागबाछा जैसे लोक देवताओं की पूजा की जाती है। कला और वास्तुकला में भी नागों का चित्रण व्यापक रूप से मिलता है।जम्मू-कश्मीर: जम्मू-कश्मीर को प्राचीन काल से सर्प-पूजा का एक प्रमुख केंद्र माना जाता रहा है। यहाँ कई झरने और स्थल हैं जिन्हें नाग देवताओं से जोड़ा जाता है और पवित्र माना जाता है। बौद्ध धर्म के प्रारंभिक काल में भी कश्मीर में नाग राजाओं का उल्लेख मिलता है, जैसे अरवल नाग।तमिलनाडु: तमिलनाडु में भी नागों की पूजा की जाती है। यहाँ के मंदिरों में अक्सर नागों की मूर्तियाँ मिलती हैं। तमिल में 'नागरिकम' शब्द का अर्थ 'संस्कृत लोग' है, जो नागों के साथ सांस्कृतिक संबंध को दर्शाता है। प्राचीन पल्लव वंश की उत्पत्ति भी नागों से जुड़ी मानी जाती है। श्रीलंका के तमिलों में भी नाग परंपराएँ और विश्वास पाए जाते हैं।
कर्नाटक: कर्नाटक में नाग आराधना व पूजा बहुत गहरी है, विशेषकर तुलुनाडु क्षेत्र में हर घर में एक परिवार नाग देवता होता है और हर मंदिर में नाग देवता का एक स्थान होता है। कुक्के सुब्रमण्या मंदिर नाग पूजा के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ सर्प दोष निवारण के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं। नागमंडला और आश्लेषबली पूजा जैसे अनुष्ठान यहाँ प्रचलित हैं।असम: असम में भी नाग जनजातियों का निवास है, और उनके जीवन पर नागों से जुड़ी लोककथाओं और विश्वासों का प्रभाव है। उनका जीवनशैली और धर्म काफी बदल गया है, पर पारंपरिक कला और शिल्प में अभी भी नाग प्रतीक चिन्हों का प्रयोग होता है।मेघालय: मेघालय में भी नागाओं से जुड़े कुछ पारंपरिक विश्वास और लोककथाएँ मिलती हैं, हालाँकि यहाँ का प्रमुख सांस्कृतिक परिदृश्य अन्य जनजातीय समूहों का है।उत्तराखंड: उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में नाग पूजा बहुत प्राचीन मानी जाती है। यहाँ के लोग प्राचीन काल से नाग देवताओं की पूजा करते रहे हैं, जिन्हें अक्सर मौसम और कृषि का नियंत्रक माना जाता है। कई स्थानीय लोक देवताओं और त्योहारों में भी नागों का महत्व देखा जाता है।
पाकिस्तान, सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्रों ( मोहनजो-दाड़ो और हड़प्पा) में, प्राचीन सर्प पूजा के प्रमाण मिलते हैं। ये सभ्यताएं पूर्व-वैदिक काल की थीं, जहाँ सर्पों को उर्वरता और सुरक्षा से जोड़ा जाता था। गांधार कला (पहली शताब्दी ईस्वी से) में भी बौद्ध धर्म के प्रभाव में नागों को बुद्ध के संरक्षक के रूप में दर्शाया गया है। इस्लाम के आगमन के बाद, सर्प पूजा का प्रचलन काफी कम हो गया। बांग्लादेश में नाग संस्कृति का गहरा प्रभाव है, खासकर मनसा देवी की पूजा के रूप में, जो सर्पों की देवी हैं और सर्पदंश से बचाव के लिए पूजी जाती हैं। यह बंगाली लोक धर्म और हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ।
प्राचीन अफगानिस्तान, गांधार क्षेत्र, में भारतीय और फ़ारसी संस्कृतियों के चौराहे पर रहा है। यहाँ भी गांधार कला के माध्यम से नागों को बौद्ध और कुछ हद तक हिंदू संदर्भों में दर्शाया गया है। इस्लाम के आगमन के बाद, सर्प पूजा जैसी पूर्व-इस्लामिक प्रथाएँ धीरे-धीरे लुप्त हो गईं । ईरान (फारस) और इराक (मेसोपोटामिया): में, जो प्राचीन मेसोपोटामिया और फ़ारसी सभ्यताओं के केंद्र थे, सर्प पूजा का एक लंबा इतिहास रहा है । मेसोपोटामिया ( इराक) में, सर्पों को अमरता (त्वचा बदलने के कारण), उपचार और जल से जोड़ा जाता था। सुमेरियन निंगिशज़िदा जैसे सर्प देवताओं की पूजा करते थे। बेबीलोनियाई और असीरियाई कला में भी सर्पों का चित्रण मिलता है। ईरान की प्राचीन संस्कृतियों ( एलाम) में सर्पों को पवित्र माना जाता था। हालांकि, बाद में पारसी धर्म और फिर इस्लाम के प्रभुत्व के साथ, सर्प पूजा का प्रचलन समाप्तहो गया । इस्लाम-पूर्व अरब में जनजातीय विश्वासों में सर्पों को आध्यात्मिक शक्तियों से जोड़ा जाता था। इस्लाम के आगमन के बाद, यहूदी धर्म और ईसाई धर्म की तरह, सर्पों को आमतौर पर बुराई या शैतान से जोड़ा गया, जिससे उनकी पूजा का कोई स्थान नहीं रहा। अफ्रीका के कई हिस्सों में सर्प पूजा का प्रचलन रहा है, विशेषकर पश्चिम अफ्रीका में। यहाँ सर्पों को बुद्धि, उपचार, प्रजनन और पूर्वजों की आत्माओं से जोड़ा जाता है। डाहेमियन धर्म में पवित्र अजगरों की पूजा की जाती है। यह भारतीय नाग संस्कृति से स्वतंत्र रूप से विकसित हुई, लेकिन सर्पों के प्रति समान आदर और भय को दर्शाती है। कुछ विद्वानों ने प्राचीन भारतीय "नागा" लोगों के साथ अफ्रीकी "कुशिटिक" जनजातियों के ऐतिहासिक संबंधों के सिद्धांत भी प्रस्तुत किए है।संयुक्त राज्य अमेरिका मेनाग शब्द मुख्य रूप से भारत के नागा लोगों या पौराणिक नागों के संदर्भ में अकादमिक अध्ययन, जातीय समुदायों की सांस्कृतिक विरासत (भारतीय डायस्पोरा) या दक्षिण एशियाई लोककथाओं के रूप में ही जाना जाता है।ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, उन्होंने भारत के नागालैंड के नागा लोगों के साथ संपर्क स्थापित किया, और उनके बारे में एथनोग्राफिक अध्ययन किए।, इंग्लैंड में नाग संस्कृति का उल्लेख मुख्य रूप से शैक्षिक संदर्भों ( मानवविज्ञानी अध्ययन), संग्रहालयों में प्रदर्शन (विशेषकर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान एकत्र की गई कलाकृतियों) या भारतीय प्रवासियों द्वारा मनाए जाने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में होता है। भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया में नाग संस्कृति का गहरा और निरंतर प्रभाव रहा है। मध्य पूर्व और अफ्रीका में सर्प पूजा के अलग-अलग रूप थे, लेकिन वे सीधे तौर पर भारतीय "नाग" अवधारणा से जुड़े नहीं थे। पश्चिमी देशों जैसे अमेरिका और इंग्लैंड में, नाग संस्कृति का प्रभाव मुख्य रूप से भारत के साथ ऐतिहासिक या सांस्कृतिक संबंधों के माध्यम से है, न कि स्वदेशी परंपरा के रूप में नाग संस्कृति के जन्मदाता महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू को माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने ही नागों को जन्म दिया, जिससे नागवंश और उससे जुड़ी संस्कृति का उद्भव हुआ है।
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