शिव का वैदिक स्वरूप:--अशोक “प्रवृद्ध”
वैदिक मतानुसार परमात्मा के अनेक गुण हैं। अनेक गुणों के कारण ईश्वर के अनंत नाम हैं। परमात्मा के अनंत नामों में से एक नाम शिव है। शिव निराकार, अजन्मा, सर्वत्र व्याप्त, सर्वशक्तिमान, सृष्टि, पृथ्वी के रचयिता हैं। लेकिन वर्तमान में उन्हें वैदिक मत के विरुद्ध देखा जाता है और कहा जाता है कि शिव का हिमालय पर्वत में निवास है। उनका मूर्ति अथवा लिंग रूप में पूजा- अर्चना, आराधना- उपासना, जलाभिषेक आदि किया जाता है। लेकिन यजुर्वेद 40/8 में परमात्मा के सम्बन्ध में कहा गया है- स परि+अगात्। अर्थात ईश्वर सर्वव्यापक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ईश्वर केवल पर्वत पर नहीं, वरन ईश्वर का सर्वत्र वास है। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है-
तत् सृष्टवा तदेवानुप्राविशत्।
अर्थात- ईश्वर ने सृष्टि रची और फिर वह कण-कण में समा गया। सबके रक्षक, सबके दाता ईश्वर के अनन्त गुणों में से यह गुण ईश्वर का सर्वव्यापक होना उसका स्वाभाविक गुण है।
वैदिक मतानुसार इस संपूर्ण ब्रह्मांड में जो एक पूजनीय देव है, वह निराकार, सृष्टि रचयिता, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही है। इसके समान अन्य कोई देवता नहीं है। ऋग्वेद 1/81/5 में कहा गया है- हे ईश्वर! तेरे समान न कोई हुआ और न कोई होगा। जिसने आकाश, सूर्य आदि सब जगत को रच के रक्षित किया है, जो कण-कण में व्यापक है और जो जन्म तथा मृत्यु से परे है, उस एक परमेश्वर से अधिक कोई अन्य या कुछ और कैसे हो सकता है? इसलिए इस परमेश्वर की उपासना को छोड़कर अन्य किसी की उपासना ग्रहण मत करो। इसी प्रकार
यजुर्वेद मंत्र 40/8 में कहा है कि वह सबका पूजनीय परमेश्वर सर्वज्ञ, सर्वत्र, निराकार, शुद्ध,
पाप-पुण्य आदि कर्म बंधन से रहित, सबके मन की जानने वाला है और इस परमेश्वर से ही
चारों वेदों का ज्ञान उत्पन्न हुआ है।
यजुर्वेद के मंत्र 7/4 के अनुसार ईश्वर से ही अष्टांग योग विद्या उत्पन्न हुई है, जिसका वर्णन वेदों में है। ऋषि-मुनियों एवं याज्ञवल्क्य ऋषि की वैदिक उक्ति है-
हिरण्यगर्भः योगस्य वक्ता।
अर्थात- ज्योतिस्वरूप परमेश्वर ही योग विद्या का उपदेशक है, अन्य कोई नहीं।
प्राचीन ऋषि- मुनियों ने वेदों से ही इस विद्या को सीखकर किया आगे अपने शिष्यों को उपदेश किया, जो आज तक चला आ रहा है। पतंजलि ऋषि कृत योग शास्त्र 2/29 में योग विद्या के इन आठ अंगों का उपदेश है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।
महाभारत काल तक तो यह सब कुछ ठीक- ठाक चल रहा था और प्रत्येक ऋषि- मुनि, योगी इस ईश्वर से उत्पन्न योग विद्या का परंपरागत अभ्यास करके ईश्वर की उपासना करते हुए शब्द ब्रह्म अर्थात वेद और पर ब्रह्म अर्थात ईश्वर को प्राप्त करते रहे, परंतु महाभारत युद्ध के पश्चात वेद विद्या का सूर्य अस्त हो गया, लोग वेद की सत्य ज्ञान से वंचित हो गए और मनुष्यों ने वेद विरुद्ध अपनी सुविधानुसार पूजा -पाठ के स्वयं अनेक मार्ग बना लिए, अनेक पंथ, मत, मजहब बना लिए। वैदिक ज्ञान, वैराग्य व ईश्वर भक्ति को मनुष्य ने मोहवश छोड़ दिया और वेद के विरुद्ध अनेक नए-नए पंथों की कल्पना कर ली। इसलिए वर्तमान में जो शिव हैं, उनको निराकार, पथ्वी रचयिता परमेश्वर के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि उन्हें साकार, पार्वती पति, कैलाशाधिपति, योगी आदि विभिन्न रूपों और नामों के अनुसार जाना जाता है। वैदिक संस्कृति का अध्ययन न करने के कारण शिव के वास्तविक वैदिक स्वरूप को लोग भूल गए।
शिव का वैदिक अर्थ है कल्याणकारी। ईश्वर के अतिरिक्त संसार का कल्याण, रक्षा एवं पालन-पोषण करने वाला अन्य कोई नहीं हो सकता। वैदिकों के नित्यप्रति के संध्या- उपासना में प्रयुक्त होने वाली मंत्र यजुर्वेद 16/41 में परम पित़ा परमेश्वर का स्मरण करते हुए एक ही साथ शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर आदि शब्द एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं-
नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम:
शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। -यजुर्वेद 16/41
अर्थात- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने वाले परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मंगलकारी और अत्यन्त मंगलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।
वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है। यजुर्वेद 3/60 में कहा है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। -यजुर्वेद 3/60
अर्थात- विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।
यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में शिव के वैदिक स्वरूप का अत्यंत सूक्ष्म वर्णन अंकित है। यजुर्वेद 16/2 में भी ईश्वर के गुणों और कर्मों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।। -यजुर्वेद 16/2
अर्थात- हे मेघ व सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने वाली कल्याणकारिणी देह व विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह व विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिए।
यजुर्वेद 16/5 में परमात्मा के भिषक रूप का वर्णन करते हुए कहा है-
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।। -यजुर्वेद 16/5
अर्थात- हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करने वाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करने वाले रोगों को निश्चय से औषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी औषधि अथवा व्यभिचारिणी स्त्रियों को दूर कीजिए।
यजुर्वेद 16/49 में भी शिव के भिषक रूप के सम्बन्ध में कहा है -
या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।। -यजुर्वेद 16/49
अर्थात- हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह अथवा देखने में प्रिय औषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली विस्तारयुक्त नीति से जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।
वेदों की भांति ही उपनिषदों में भी शिव की महिमा बढ़- चढ़कर गाई गई है-
स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।। -कैवल्योपनिषद 1/8
अर्थात- वह जगत का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
माण्डूक्य उपनिषद में शिव का शान्त और आनन्दमय के रूप अर्थ में वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।
-माण्डूक्य उपनिषद 7
अर्थात- प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
श्वेताश्वेत्तर उपनिषद 4/14 में कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।। -श्वेताश्वेत्तर 4/14
अर्थात- परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।
श्वेताश्वेत्तर उपनिषद 6/9 में कहा है-
नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।। -श्वेताश्वेत्तर उपनिषद 6/9
अर्थात- उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग यहवा निशान है।
योगदर्शन1/1/4 में परमात्मा के सम्बन्ध में कहा है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।- योगदर्शन1/1/24
अर्थात- जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
ईश्वर को प्राचीन गुरुओं का भी गुरु बताते हुए योगदर्शन1/1/26 में कहा गया है-
स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। - योगदर्शन1/1/24
अर्थात- वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या करते हुए कहा गया है- जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम रुद्र है। यजुर्वेद के ब्राह्मण के वचन के अनुसार जीव जिस का मन से ध्यान करता उसको वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता, उसको कर्म से करता, जिसको कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इससे सिद्ध है कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करने वाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उनको रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम रूद्र है। जो कल्याण अर्थात सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम शंकर है। जो महान देवों का देव अर्थात विद्वानों का भी विद्वान, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम महादेव है। जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शिव है। वेदों में सर्वत्र एकेश्वरवाद का ही समर्थन किया गया है। वेद में निराकार शिव का ही वर्णन है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। इस निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करना ही श्रेयस्कर है। इसीलिए ज्ञानी जन शांति उत्पन्न करने वाले मंगलकारी और अत्यंत मंगल स्वरूप परमेश्वर को नमन करते नहीं थकते हैं, और कल्याण को प्राप्त करते हैं। भगवान शिव सबका मंगल करें।
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