काली माई के पुजइया
मार्कण्डेय शारदेय:छोट-छोट जीउ।अगराइल मन।हम भाई-बहिन अपना दुआरी प अनगुताहें आके बइठि जात रहींजा।हरेक यात्री के निहारींजा।केहू चउकी ले-ले जाउ त केहू खोंचा, दउरी।केहू पानी के डराम त केहू बरतन।केहू बेंच त केहू का-का दो।ई सभ काली माई किहाँ जाये से सम्बन्धित सामान रहन।अउरो लोग जाये-आवे वाला रहे, बाकिर ओसे कवनो अगरहट ना होखे।
हमनी किहाँ सावन सुदी सतिमी के काली माई के पुजइया होला।बड़ मेला लागेला।नगरवासी त जइबे करेलें, बाहरियो लोगन के कम आगमन ना होखे।सरधा त कतहूँ केहू प हो सकेले। जे-जे कवनो तरह के भखउटी भखले होखे, कालीमाई के किरिपा से पूरा भइल होखे त ऊ काहें ना आई! अपना लोगन से महिमा काहें ना कही-बताई! जन-जन तक फइलाव अइसही नू होला!
फजिरे-फजिर केहू पूजा करे जाउ त केहू मेला में बेंचेके सामान लेके जाउ।सभे जान-पहचान के त रहे ना।महल्ला के कमे लोग मेला में दोकान लगावेवाला रहन।शायद; एकही बिसनाथ हलुआई।बाकिर; सुबहे-सुबह खँसिया, घुघुनी, दहीबड़ा ना नू बिचाई! त; ऊ भा उनुकर लइका गंगा भा जमुना बारी-बारी कराही, छोलनी, छनवटा, कलछुल, परात, टूल आदि लेके जात रहन।
हमनी के सबसे अधिक धेयान बटेसर प रहत रहे।बटेसर आ उनुकर भतीजा राधेसाम; प।एसे जे बाबूजी जब मेला घुमावे ले जइहें त अधिकतर बटेसरे के इहाँ से बतासा लीहें आ कालीमाई के चढ़ावे जइहें।ओकरा बाद उनुके इहाँ से दू-दू पाई के मिलउनी खियइहें।बाद में पाँच नया, फिर दस नया के।माने, महँगी बढ़त गइल त ओतने सामान के दाम बढ़त गइल।बटेसर के खोंचा ना लउकल त राधेसाम किहाँ से।
सुबहे बिना मुँह-आँखि धोअले दुआरी प बइठल केकर पहिल नजर कवन चीज प परल, कहल मुश्किल।बाकिर जेकर परल ऊ विजेता नियन खुशी में झूमिके कहलस, हऊ देख मिठाईवाला शीशा।हमनी के बालमंडली में दिदिया (दुर्गावती) सबसे चतुर रहे आ ओकर दृष्टि कवनो नया प पहिले पड़े।मंडली में हम आ हमार छोट भाई नारायन के अलावे छोट बहिन लछिमी आ सुरसतियो रहे।बड़ाई-छोटाई के मोताबिक बुधियो रहे।लगभग दू-दू बरिस के अन्तर में हम ओघरी बुला आठ-नव बरिस के होखम त दिदिया दस-एगारह बरिस के।बाकिर; आजु के लइका-लइकिन से बहुते पीछे।पढ़हू-लिखे से कवनो मतलब ना।हँ; केहू कवनो काम खातिर भीतर जाउ, त चेताके जाउ जे कुछुओ अउर लउकी त ऊ बताई।ई बात हमरा आ दिदिये तक सीमित रहे।अउर लोग के दूध-भात रहे।
सुबह से दुपहरिया के पहिले तक हमरा किहाँ कालीमाई के पिठार चढ़ेला।लोग पिसान के लोइया प लवंग खोंसिके आ सेनुर से टीकिके ले जालें।हर घर के लोग ले जालें।हमनी का कहाँ केहू के चीन्हींजा।बाकिर; लइकबुधि रहे जे कहीं जा हऊ देखु रे हऊ लइकवा ले जाता, हऊ करीका अदिमिया ले जाता, हऊ मोटका ले जाता।केहू-केहू अइसनो रहे, जेकरा के महल्ला के नाम से जनबो करींजा।त कहींजा हऊ ललटोलिया वाला पिठार ले जाता।हऊ अदिमिया चिकवा के पुल के ह।हऊ जंगल बजार के ह।
हम त पाँचे-छव बरिस के भइला के बाद से दुआर अगोरले रहत रहीं।बड़ खुशी होत रहे।काहें कि कालीमाई किहाँ जायेके एगो रास्ता हमरो महल्ला से रहे आ इहे एगो मेला रहे जे हारिके-हारि लोग हमरा ओर से जात आवत रहे।हँ; दुर्गापूजो में गाँव-देहात के झुंड-के—झुंड मेहरारू-लइका आ मरदाना जात-आवत रहन, बाकिर कालीमाई के पुजइया के कुछ अउरे आनन्द रहे।
एगारह-बारह बरिस के भइला प त सुबह से दस-एगारह बजे अगोरिया के बाद अकेलही कावनदी (जेकरा के हमनी किहाँ के लोग ‘कइया’ कहे) के ओह पार कालीमाई के मन्दिर आ ओकरा आस-पास घूमे निकल जाईं।उत्सुकता रहलि जे देखीं कहँवा का होता।कबो-कबो त बेखइले-पियले एक-दू बजे तक घूमत रहीं।
काव के पार कालीमाई के मन्दिर।पेड़-पउधन से भरल परिसर।मन्दिर के पुरुबारी छत प बाघ के साथे तिरसूल लेले भारत माता।मन्दिर में सौम्य कालीजी के प्रतिमा।सटले परिकरमा।परिसरे में पकिया कुआँ आ कुआँ के पासे ढेंकुल।ढेंकुल में बान्हल डोर-बालटी।परिसर आगे पच्छिम परती भा मैदान में दोकान।मेला के सामान।कहीं छोला त कहीं जलेबी।कहीं गरम-गरम चिनिया बेदाम त कहीं किसिम-किसिम के मिठाई।कहीं फूल-बतासा त कहीं निमिकी, खँसिया, घुघुनी, दहीबड़ा, कचालू, सेब-दलमोट, सिंघाड़ा।कहीं रुइया मिठाई त कहीं फुलवना।कहीं बँसुरी त कहीं पिपिहिरी भा अउर तरह के बाजा।
कहीं दोकानदार चिचिया-चिचिया के गहँकी बोलावता त कहीं डमरू बजा—जाके।केहू के बोली में अभिनय त केहू के शरीरे अभिनयपूर्ण।कहीं मदारी त कहीं खिलाड़ी।सुबह से दुपहर तक त दोकानदार व्यवस्था में लागसु।एने पिठार चढ़ेवाला काम रुके, मन्दिर धोआऊ आ माई के सजावल जाउ।मतहा के खेलल सूअर के बलि लेला के बाद बन्द होखे।दू बजे के बाद लोग दर्शन करे आवसु।भींड़ बढ़ल जाउ।कहीं लकड़ी के खेलौनाः एकहलिया, तिपहिया डगरवना, एक्का त कहीं कहीं माटी के मूरतः बबुआ, पनभरिन, सिपाही, बाघ, बतख, गाइ, घोड़ा, हाथी, सुग्गा त कहीं कचकाड़ा के सामान।
कालीमाई के मन्दिर परिसर के ठीक पीछे बगइचा में कुश्ती चले।बड़-बड़ पहलवान लँगोटा पहिरले भीड़ के भीतर दाँव-प-दाँव चलसु।ढढ़ बाजे।उठा-पटक, कलाबाजी होखे।लोग हूह भरसु।
हम एक-दू बजे तक जवन-जवन देखल बने, तवन तवन देखिके घरे जाईं।काहेंकि तीन-चार बजे बाबूजी हमनी के लेके मेला देखावे जासु आ बटेसर भा राधेसाम किहाँ मिलउनी खियावसु।खखनू कोहार किहाँ से मूरत किनाउ।पहिले फूल-बतासा लेले बाबूजी हमनी के साथे लेके कालीमाई के गोड़ लागे, दरशन करे परसादी चढ़ावे जासु।फिर कीनल-खाइल होखे।
किरिन डुबते, अन्हार होते मेला उठे लागे।भीड़ घटे लागे।दोकानदार सामान समेटे लागसु आ अपना-अपना घरे लउटे लागसु।लउटानियो के दृश्य बालमन के कम ना गुदगुदावे।बाकिर ई कम समय के रहे।आनन्दो ओइसन ना।आखिर उगत सूरुज आ डूबत सूरुज के कुछ अन्तर होला नू।सेयान भइला प त हम खुदे जाये-आवे लगलीं।कीने-खाये लगलीं।काहेंकि हम किशोर होते नित्य प्रातःकाल कालीमाई के मन्दिर में जायेवाला, ओहिजे स्नान करके दर्शन-वन्दन करेवाला लालमोहर सिंह मास्टर के टीम में शामिल हो गइल रहीं।
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