Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

ब्राह्मण रावण और आचार्य दक्षिणा

ब्राह्मण रावण और आचार्य दक्षिणा

जय प्रकाश कुवंर
रावण का नाम लेते ही मन में एक बुरे व्यक्ति का चरित्र सामने उभर कर आता है। इस प्रकार रावण बुराई का प्रतीक बन कर दुनिया के सामने रह गया है। लेकिन रावण के विषय में गहन अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि रावण वास्तव में एक बहुत बड़ा पंडित, शिव भक्त, परम ज्ञानी, कुशल आचार्य, अत्यंत शक्तिशाली और लंका का राजा था। अपने पूर्व जन्म में वह विष्णु भक्त एवं विष्णु के द्वारपालों जय और विजय में से एक था, जो चार कुमारों ( सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ) के श्रापवश इस जन्म में असुर रावण के रूप में पैदा हुआ था और लंका का राजा था।
रावण ब्राह्मण इसलिए था, क्योंकि वह पुलस्त्य ऋषि का पौत्र तथा विश्रवा का पुत्र था। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा जी के दश मानस पुत्रों में से एक थे और सप्तर्षियों में से एक माने जाते हैं। वेदों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति हिन्दू धर्म के देवता ब्रह्मा जी से ही हुई है। अतः ब्राह्मण भगवान ब्रह्मा जी के वंशज हैं।
पुलस्त्य ऋषि ज्ञान और तपस्या के लिए प्रसिद्ध थे और उनका लक्ष्य विश्व का कल्याण करना था। उनका विवाह कर्दम प्रजापति की पुत्री हविर्भू से हुआ था, जिससे उनके पुत्र विश्रवा हुए थे। ऋषि विश्रवा की दो पत्नियां थी। पहली पत्नी का नाम इडविडा था, जो एक यक्षिणी थी। उनसे कुबेर का जन्म हुआ था। ऋषि विश्रवा की दुसरी पत्नी कैकसी थी , जो राक्षस कुल से थी, जिससे रावण का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुबेर और रावण सौतेले भाई थे।
रामायण की कथा के अनुसार ऋषि विश्रवा ने लंका का राजा अपने पुत्र कुबेर को बनाया था। लेकिन बाद में कुबेर से युद्ध करके रावण ने लंका का राज एवं पुष्पक विमान कुबेर से छीन लिया था।
रामायण की कथा के अनुसार एक समय भगवान राम अपनी वनवास की अवधि में दंडक वन में ठहरे हुए थे। रावण के दो अन्य भाई खर और दूषण उन दिनों डंडक वन में ही रहते थे। एक बार रावण की बहन सूर्पनखा दंडक वन में वेष बदल कर एक सुंदर युवती के रूप में आयी और राम से बिबाह करना चाहती थी। लेकिन जब राम ने अस्वीकार कर दिया तब उसने राक्षसी वेष में सीता पर हमला करना चाहा, तब लक्ष्मण जी ने उसके नाक कान काट दिए। इसके बाद उसके रोने और उकसाने पर उसके भाई खर और दूषण राम से युद्ध करने चले आए और युद्ध में दोनों ही मारे गए। इस पर सूर्पनखा ने सारा वृतांत लंका जाकर अपने भाई रावण को सुनाई और उसे उकसाया की तुम्हारे रहते तुम्हारी बहन की यह हालत दो मनुष्य वनवासियों के हाथों हुई है।
सब कुछ सुनने और जानने के बाद रावण चिंता में पड़ गया और सोचने लगा कि खर और दूषण तो मेरे समान ही बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है।
श्री रामचरितमानस में एक प्रसंग में रावण के मन की बात को इस प्रकार दर्शाया गया है :-
खर दूषण मोहि सम बलवंता।
तिन्हहिं को मार‌ई बिनु भगवंता।।
इस प्रकार परम ज्ञानी और शिव भक्त रावण को यह समझने में देर नही लगती है कि भगवान को छोड़कर मेरे समान मेरे शक्तीशाली भाईयों को भगवान के अलावा और किसी ने नहीं मारा है। अब वह भी अपनी बहन के अपमान का बदला लेने और भगवान के हाथों मृत्यु को प्राप्त कर इस प्रकार भवसागर पार करने के लिए अपने बल, राजसी, तामसी और राक्षसी आचरण के अनुरूप फैसला लेता है, जैसा तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में उल्लेख किया है :-
सुर रंजन भंजन महि भारा।
जौ भगवंत लिन्ह अवतारा।।
तौ मैं जाई बैरू हठ कर‌ऊं ।
प्रभु सर प्रान तजे भव तर‌ऊं।।
और अपने इसी युक्ति के अन्तर्गत वह लंका से दंडक वन पंचवटी आकर मारीच की सहायता से राम की पत्नी सीता का हरण करता है और राम को उससे युद्ध कर अपनी पत्नी को छुड़ाने के लिए खुला आमंत्रण देता है।
सीता का कपिराज सुग्रीव की सहायता से हनुमान जी द्वारा पता लगाने पर राम लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र तट पर अपनी वानरसेना के साथ पहुंचते हैं और वहाँ तट पर अपने विजय के लिए अपने परम पूज्य भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित करना चाहते हैं। और हनुमान जी को विग्रह लाने के लिए हिमालय कैलाश भेज देते हैं। सनातन धर्म में स्थापना और पूजन के लिए एक आचार्य अथवा पुरोहित की आवश्यकता होती है, जो विधिवत पूजन संपन्न करा सके। उस समय वनवास की अवधि में राम के पास कोई पुरोहित अथवा आचार्य नहीं था। इस कारण से भगवान राम ने जामवंत जी से कहा कि मेरे इस अनुष्ठान को संपन्न कराने के लिए किसी योग्य आचार्य को ले आइये। जामवंत जी द्वारा यह कहने पर कि यहाँ आस पास कोई नगर नहीं है, अतः कोई योग्य आचार्य मिलना मुश्किल है। इस पर राम जी ने कहा कि आप लंका पति रावण को ही आचार्य के रूप में आमंत्रित कर आइये, क्योंकि रावण एक महान विद्वान, पंडित और शिव जी का भक्त भी है। इस लिए इस अनुष्ठान के लिए रावण को ही बुलाना उचित रहेगा। यह सुनकर जामवंत जी रावण को आचार्य का निमंत्रण देने लंका को चल दिए।
इस कथा का उल्लेख तुलसीदास जी लिखित श्रीरामचरितमानस में नहीं मिलता है, बल्कि तमिल भाषा में महर्षि कंबन द्वारा रचित "इरामावतारम "में मिलता है।
लंका में पहुँच कर जब जामवंत जी ने रावण को यह सूचना भेजा कि वो राम द्वारा भेजे गए उनके दूत हैं, तो रावण ने अपने सेवकों को उन्हें दरबार में लाने को कहा।
वहाँ पहुँच कर जामवंत जी ने देखा रावण स्वयं उनके अभिनंदन के लिए हाथ जोड़कर खड़ा है। जामवंत जी ने रावण को प्रणाम किया और कहा कि हे राजन् मैं इतना बड़ा नहीं हूँ जो आप राजा होकर मेरा अभिनंदन करें। मैं इस समय श्री राम जी का दूत बनकर आया हूँ।
इस पर महा ज्ञानी रावण बोला कि हे पितामह, आप मेरे पितामह के भाई हैं, क्योंकि आप और मेरे पितामह पुलस्त्य ऋषि दोनों ही ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। इसलिए आप हमारे पूजनीय हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें और अपने आने का उद्देश्य बताएं। आसान ग्रहण करने के बाद जामवंत जी ने कहना आरंभ किया कि हे राजन् इस समय लंका पर चढ़ाई करने के लिए श्री राम जी समुद्र के उस पार विराजमान हैं। सागर पर सेतु का निर्माण कार्य भी पुरा होने वाला है। अब प्रभु श्री राम ने सागर तट पर शिवलिंग विग्रह की स्थापना का विचार बनाया है। इसकी स्थापना हेतु अनुष्ठान पूर्ण करने के लिए उन्होंने आपको आचार्यत्व के लिए आमंत्रित किया है। क्योंकि यहाँ आपसे बड़ा शिव भक्त, आपसे बड़ा ज्ञानी और आपसे बड़ा वेद ज्ञाता कोई नहीं है। इसलिए आप ही प्रभु श्री राम को इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ लगे।
जामवंत की यह बात सुनकर रावण थोड़ा मुस्कराया, तत्पश्चात बोला " क्या यह विजय के लिए किया जा रहा है। " तब जामवंत जी ने कहा कि आपका अनुमान सर्वथा सत्य है। श्री राम शिव जी के अनन्य भक्त हैं।
रावण ने मन में विचार किया कि जीवन में पहली बार किसी ने रावण को ब्राह्मण और आचार्य योग्य माना है। अब रावण इतना मूर्ख व्यक्ति तो है नहीं, जो इतने महान ऋषि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण स्वीकार नहीं करे। और वह भी अपने आराध्य श्री महेश्वर के पूजन के लिए।
यह बात सुनकर रावण क्रोध से भर गया। वह बोला जामवंत जी आप को क्या ये पता नहीं है कि आप त्रिलोक विजयी रावण के राजदरबार में बैठे हैं। अगर हमने आप को बंदी बना लिया तब आप क्या करेंगे। ऐसे में तो आपके श्री राम का विजय के लिए अनुष्ठान भी पुरा नहीं हो पाएगा।
यह सुनकर जामवंत जी हंस कर बोले कि आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि युद्ध में मुझे हराने की क्षमता लंका के समस्त दानवों में भी नहीं है। परंतु मुझे शक्ति प्रदर्शन की आज्ञा नहीं है।
जामवंत जी ने पुनः कहा - हे रावण इसके साथ आपको यह भी बता देता हूँ कि जब मैं यहाँ के लिए रामदल से निकला था तभी से धनुर्धारी लक्षमण ने पासुपतास्त्र संधान कर लिया था। और उन्होंने मुझसे कहा था कि हे जामवंत जी रावण को ये बता देना। अगर उसने कोई विरोध प्रकट किया तो इसी अस्त्र से उसके समूचे कुल का नाश कर दिया जाएगा। आप इस आमंत्रण को स्वीकार कर लें। यही आप के लिए उत्तम होगा।
जामवंत जी के यह वचन सुनकर दरबार में उपस्थित सभी दानव भयभीत हो गये। रावण भी ये सोचने लगा कि इस अस्त्र को एक बार में एक ही धनुर्धर प्रयोग कर सकता है। अब उसके पुत्र मेघनाथ के पास यह अस्त्र है भी तो उससे क्या फायदा है। अब इस समय तो लक्षमण ने पहले संधान में ले ही लिया है। एक बार संधान में आने के बाद तो उसे स्वयं शिव जी भी नहीं रोक सकते हैं। अब इस समस्या का कोई उपाय नहीं है।
कुछ देर सोचने के बाद रावण ने जामवंत से कहा - क्या राम का बिबाह हो गया है। यदि बिबाह हो चुका है तो क्या उसकी भार्या साथ में है। क्योंकि अनुष्ठान में दोनों का सम्मिलित होना आवश्यक है। तब जामवंत ने कहा हे आचार्य लंकापति, श्री राम की भार्या को तो आप हरण कर ले आए हैं। अतः उनकी व्यवस्था आचार्य को ही करनी होगी। विद्वान रावण सोचकर बोला - हे पितामह अब आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। आप उनसे कहना कि मैंने उनका आचार्यत्व का आमंत्रण स्वीकार कर लिया है। उनका अनुष्ठान अवश्य पूर्ण होगा।
जामवंत को विदा करने के पश्चात, तत्काल ही रावण ने अपने सेवकों को पूजा के लिए सारी सामग्री एकत्रित करने का आदेश दिया। वह स्वयं अशोकवाटिका में पहुँचा, क्योंकि रावण अपने कर्तव्य को जानता था। उसे यह पता था कि जो सामग्री यजमान एकत्रित न कर सके वह आचार्य को करना परम आवश्यक है। रावण यह जानता था कि राम तो वनवासी हैं, उनके पास क्या है और उन्हें क्या चाहिए। अशोकवाटिका में सीता के समक्ष पहुँच कर रावण ने कहा हे सीते! राम समुद्र के उस पार अपने युद्ध विजय के लिए समुद्र तट पर प्रभु महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना कर रहे हैं। उन्होंने मुझे आचार्यत्व के लिए आमंत्रित किया है।
यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यही आचार्य का भी परम कर्तव्य होता है। यह तो तुम जानती हो कि अर्धांगिनी के बिना कोई भी अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता। अतः मैं पुष्पक विमान भेज रहा हूँ, तुम उसपर बैठ जाना। परंतु यह याद रखना कि तुम अभी भी रावण की ही बंदी हो। तुम रावण के अधीन हो। इसलिए अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्चात तुम्हें पुनः लंका में वापस आना है। अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्चात तुम स्वयं विमान में बैठ जाना। यह मेरा आदेश है। क्योंकि स्वामी का आचार्य स्वयं का आचार्य होता है। यह सुनकर माँ सीता ने रावण को करबद्ध प्रणाम किया। रावण ने सदा सौभाग्यवती भव कहते हुए दोनों हाथ उठाकर उनको आशीर्वाद दिया।
तत्पश्चात सीता और अन्य सामग्रियों को साथ लेकर रावण समुद्र तट की ओर चल दिया। वहाँ पहुंचकर रावण सीता से बोला कि जब आदेश मिले तब आ जाना। यह कहकर रावण श्री राम की ओर चल दिया।
इधर जामवंत जी ने जैसे ही यह खबर श्री राम को बताई कि रावण आचार्यत्व के लिए मान गया है, तभी से वो सारी सेना सहित उनके स्वागत के लिए तत्पर हो गये। ज्योंही रावण उनके सम्मुख पहुंचा, प्रभु श्री राम ने हाथ जोड़कर रावण को प्रणाम किया। तब रावण ने श्री राम को लंका विजय का आशीर्वाद दिया। यह सुनकर वहाँ उपस्थित सभी जन अचंभित हो गये।
इसके बाद रावण ने भूमि पूजन का कार्य शुभारंभ किया। भूमि पूजन के उपरांत रावण ने कहा यजमान आपकी अर्धांगिनी कहाँ है। उन्हें यथा स्थान आसान पर विराजित कराइये।
यह सुनकर श्री राम ने हाथ जोड़कर रावण के सम्मुख कहा - हे आचार्य किसी भी सामग्री को अगर पूर्ण करने में यजमान असमर्थ हो, तो आचार्य उसके अभाव में अगर सर्वश्रेष्ठ विकल्प ना हो, तो कोई समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान को पूर्ण कर सकते हैं।
तब रावण बोला - अवश्य क्यों नहीं।
परंतु जब उस विकल्प का अभाव हो तब ऐसा होता है। जब वह विकल्प उपस्थित हो तब नहीं। यदि तुम अविवाहित होते, वानप्रस्थ आश्रम में होते, या संन्यासी होते , तो ऐसा संभव था। परंतु सामान्य अवस्था में तुम पत्नी के बिना अनुष्ठान को कैसे पूर्ण करोगे।
तब श्री राम ने हाथ जोड़कर कहा कि आचार्य कोई उपाय कीजिये।
तब रावण बोला कि आचार्य तो अपने साधन वापस लेकर जाते हैं।
अगर आपको स्वीकार हो तो सागर निकट भेज दो। सागर के सन्निकट विमान में यजमान की पत्नी विराजमान हैं।
श्री राम ने हाथ जोड़कर इस युक्ति को स्वीकार कर लिया। श्री राम की आज्ञा से विभीषण जी मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गये और माता सीता जी को लेकर लौटे।
सीता जी को देखकर रावण ने कहा कि अपने पति के वामभाग में विराजित हो जाओ। आचार्य के इस आदेश का सीता जी ने पालन किया।
गणपति पूजन, कलश स्थापना, नवग्रह पूजन के पश्चात रावण ने पूछा कि लिंग विग्रह कैसा होगा ।
तब श्री राम ने कहा कि कल रात्रि से पवनसुत कैलाश पर्वत पर गये हैं और अब लिंग विग्रह लेकर आते ही होंगे। तब आचार्य ने कहा कि मुहूर्त निकला जा रहा है। विलंब करना उचित नहीं होगा। अपनी पत्नी से कहो की शीघ्र ही बालू का शिवलिंग बना ले। सीता जी ने रावण के आदेशानुसार मिलकर सियाराम ने अपने कर कमलों से सागर की रेत से एक शिवलिंग विग्रह का निर्माण किया। इसके पश्चात विधि विधान से रावण के द्वारा यह अनुष्ठान पूर्ण किया गया।
अनुष्ठान पूर्ण होने के बाद आचार्य को दक्षिणा की बारी आई। तब श्री राम ने पश्न भरी नजरों से रावण की ओर देखते हुए कहा कि आचार्य आपकी दक्षिणा क्या है?
तब रावण श्री राम से बोला, घबराओ नहीं यजमान। जिसकी खुद की नगरी स्वर्ण की हो उसे धन संपत्ति तो चाहिए नहीं। और एक आचार्य होने के नाते मैं यह भी जानता हूँ कि मेरे यजमान वनवासी हैं। उनके पास इस समय मुझे देने के लिए कुछ नहीं है। फिर भी मैं दक्षिणा में जो भी वस्तु मांगूगा वह यजमान को वचन देना पड़ेगा कि वह उसे पूर्ण करेंगे।
आचार्य के तौर पर रावण की बात सुनकर सभी लोग चौंक गए।
तब रावण बोला कि अगर आप मुझे देना ही चाहते हैं तो जब मेरी मृत्यु हो उस समय आप मेरे सम्मुख रहना। मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी दक्षिणा होगी।
यह सुनकर श्री राम ने कहा कि आचार्य आपकी मनवांछित इच्छा अवश्य पूरी होगी। मैं यह वचन देता हूँ कि जब आप मृत्यु शैय्या पर होंगे, उस समय मैं आपके सम्मुख उपस्थित रहूंगा।
यह संबाद सुनकर वहाँ उपस्थित सभी जन भावविभोर हो गये। सभी ने एक साथ उन अद्भुत आचार्य रावण को करबद्ध होकर प्रणाम किया।
रावण की इस दक्षिणा रूपी कामना को देखकर यही लगता है कि उससे बड़ा ज्ञानी सचमुच कोई नहीं हो सकता था। उसने जिस तरह अपना जीवन संवारा इस दक्षिणा से स्पष्ट होता है। उसने अपने शत्रु का आचार्यत्व स्वीकार किया। यह उसके विद्वता का परिचय था। वह और कुछ भी मांग सकता था। वह सीता जी को भी मांग सकता था। वह राम से लौट जाने की भी दक्षिणा मांग सकता था। परंतु उसने ऐसा नहीं किया। उसने एक भविष्य द्ष्टा के रूप में यजमान श्री राम से जो दक्षिणा मांगी वह शायद उसके जीवन के लिए सर्वथा उचित था। 
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ