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"स्वतः की स्वीकृति"

"स्वतः की स्वीकृति"

मनुष्य जन्म से लेकर जीवन पर्यंत किसी न किसी दृष्टिकोण, अपेक्षा एवं भूमिका में ढाला जाता है—माता-पिता की आकांक्षाओं में एक 'आदर्श संतान', समाज की परिभाषा में एक 'सफल व्यक्ति', एव संबंधों की कसौटी पर 'उचित एवं स्वीकार्य साथी'। धीरे-धीरे हम इतने अधिक बाहरी दृष्टिकोणों से घिर जाते हैं कि अपने वास्तविक अस्तित्व की पहचान तक धुंधला जाती है। यह एक ऐसा बोझ बन जाता है जिसे उठाते-उठाते आत्मा थक जाती है।


सच्चाई यह है कि हम उस कल्पित किरदार के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, जो किसी और ने अपनी सीमित समझ एवं अपेक्षा से हमारे भीतर गढ़ लिया है। यदि कोई इसलिए क्रोधित है कि हम उनके गढ़े हुए ढाँचे में फिट नहीं हो पाए—तो वह उनकी व्याख्या की विफलता है, हमारी नहीं।


हर व्यक्ति एक स्वतंत्र आत्मा है, जिसका अनुभव, स्वप्न एवं चेतना विशिष्ट है। जब तक हम स्वयं को उस मौलिकता में स्वीकार नहीं करते, तब तक हम किसी भी मानक पर पूर्ण नहीं हो सकते। सच्ची प्रेरणा तभी जन्म लेती है जब हम 'स्व' को समझते हैं, स्वीकारते हैं एवं उसी के अनुरूप जीने का साहस करते हैं।


यही मुक्ति है—वह मुक्ति जो तब मिलती है जब हम अपने लिए, अपने सत्य के लिए जीने का संकल्प करते हैं। क्योंकि अंततः सबसे बड़ा उत्तरदायित्व हमारा स्वयं के प्रति होता है, किसी और की कल्पना के किरदार के प्रति नहीं।


. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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