भारत की "खोज" का मिथक: एक सनातन सभ्यता की गाथा
लेखक: सत्येन्द्र कुमार पाठक
जब हम यह सुनते हैं कि वास्को डी गामा ने भारत की खोज की थी, तो यह कथन भारतीय सभ्यता की गहराई, प्राचीनता और सांस्कृतिक संपन्नता के प्रति एक गंभीर अनभिज्ञता का परिचायक है। यह एक मिथक है, जिसे औपनिवेशिक इतिहास लेखन द्वारा रचा गया और उसे एक सत्य की तरह प्रस्तुत किया गया। भारत की वास्तविकता इससे बहुत आगे है—यह एक सनातन सभ्यता है जिसकी जड़ें हजारों वर्षों में फैली हुई हैं। यह आलेख इस मिथक को खंडित करने का प्रयास है और भारत के प्राचीन अस्तित्व, भौगोलिक संरचना और सांस्कृतिक समृद्धि को प्रमाणित करने वाले शास्त्रों, ग्रंथों और ऐतिहासिक दृष्टांतों के आधार पर एक सत्य कथा प्रस्तुत करता है।
औपनिवेशिक मानसिकता और भारत की "खोज"
वास्को डी गामा का आगमन 1498 ईस्वी में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर हुआ था, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि भारत का अस्तित्व तभी से शुरू हुआ, अत्यंत भ्रामक और भेदभावपूर्ण है। यह विचार उस औपनिवेशिक मानसिकता का परिणाम है जिसने विजेताओं के दृष्टिकोण से इतिहास लिखा और पराजितों की संस्कृति, ज्ञान और समाज को महत्वहीन बनाकर प्रस्तुत किया। अंग्रेजों ने इस धारणा को फैलाया कि भारत एक संगठित राष्ट्र नहीं था, और उनका शासन भारत को एकीकृत करने के लिए आवश्यक था।
भारत की प्राचीन भौगोलिक पहचान
भारत की पहचान न केवल सांस्कृतिक रूप से, बल्कि भौगोलिक रूप से भी अत्यंत प्राचीन है। विष्णु पुराण में स्पष्ट रूप से कहा गया है:
"उत्तरं यत समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं। वर्ष तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।"
यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि भारत समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, और इसकी पहचान 'भारत' के रूप में जानी जाती रही है। यह किसी बाहरी खोज की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था।
महाद्वीपों की उत्पत्ति और भारतीय शास्त्रों में भूगोल
जहाँ आधुनिक भूगोल पृथ्वी के महाद्वीपों की उत्पत्ति को पैंजिया, गोंडवाना और अंगारा भूमियों से जोड़कर देखता है, वहीं भारतीय शास्त्रों में पृथ्वी की भौगोलिक रचना अत्यंत विस्तृत रूप से वर्णित है। मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण में वर्णित सात द्वीप (जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंच द्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप) में से जम्बूद्वीप, जिसमें भारतवर्ष स्थित है, का अत्यंत विस्तार से वर्णन मिलता है।
"जम्बूद्वीप: समस्तानामेतेषां मध्य संस्थित:... भारतं प्रथमं वर्षं..."
यह स्पष्ट करता है कि भारतवर्ष इस भूखंड का केंद्रीय भाग था और उसका विशेष धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व था।
महाभारत में वर्णित भूगोल
भीष्म पर्व में वेदव्यास द्वारा पृथ्वी का जो वर्णन किया गया है, वह आधुनिक भूगोल के साथ अद्भुत साम्य रखता है:
"सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥"
"जैसे कोई पुरुष दर्पण में मुख देखता है, वैसे ही सुदर्शन द्वीप चंद्रमंडल में दिखाई देता है।"
यह दृश्यात्मकता भारतीय ऋषियों की वैज्ञानिक दृष्टि और विश्लेषण क्षमता का प्रतीक है।
भारत: एक 'कर्मभूमि', न कि 'भोगभूमि'
ब्रह्म पुराण में भारतवर्ष को अन्य द्वीपों की तुलना में श्रेष्ठ बताया गया है और इसे 'कर्मभूमि' की उपाधि दी गई है:
"अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने। यतो कर्म भूरेषा यधाऽन्या भोग भूमयः॥"
यह बताता है कि भारत केवल सांसारिक सुखों का स्थान नहीं, बल्कि धर्म, यज्ञ, तप और त्याग की भूमि है। यही कारण है कि इसे आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ माना गया है।
भारत की पहचान: हमारे दैनिक जीवन में
हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में लिया जाने वाला संकल्प:
"जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते..."
यह बताता है कि भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान प्राचीन काल से ही हमारे सामाजिक और धार्मिक जीवन में रची-बसी है।
इतिहास लेखन पर आक्रांताओं का प्रभाव
प्रारंभिक इस्लामी आक्रमणकारियों और फिर अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को इस प्रकार लिखा कि भारत की आत्मा ही गौण कर दी गई। वे यह दिखाना चाहते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ क्षेत्र था, जिसे उन्होंने सभ्यता सिखाई। इस विकृत इतिहास का असर यह हुआ कि आज भी बहुत से भारतीय अपनी महान विरासत को भूल चुके हैं।
भारतीय संविधान में भारत की पहचान
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1(1) कहता है:
"India, that is Bharat, shall be a Union of States."
यह स्पष्ट करता है कि 'भारत' एक प्राचीन सांस्कृतिक और भौगोलिक अवधारणा है, जबकि 'इंडिया' उसका आधुनिक राजनीतिक रूप है।
'हिंदुस्तान' और 'हिंदू' की व्याख्या
'हिंदुस्तान' शब्द का प्रयोग 13वीं शताब्दी के बाद हुआ और इसका मूल अर्थ 'सिंधु के पार रहने वाले लोग' था। यह कोई धार्मिक संज्ञा नहीं थी, बल्कि एक भौगोलिक-सांस्कृतिक परिचायक था। 'हिंदू' शब्द स्वयं कोई पंथ नहीं था, यह भारत के लोगों की पहचान थी।
सूर्य सिद्धांत और खगोलशास्त्र में भारत
सूर्य सिद्धांत जैसे ग्रंथ बताते हैं कि भारतीय खगोलशास्त्र अत्यंत उन्नत था:
"याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी..."
"पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता..."
यह स्पष्ट करता है कि प्राचीन भारतीय खगोलविद विभिन्न स्थलों की स्थिति और उनके देशांतर-रेखांश की जानकारी रखते थे।
पौराणिक भूगोल और महाद्वीपीय मानचित्र
पुराणों में वर्णित 7 द्वीपों और 7 समुद्रों की व्यवस्था आधुनिक महाद्वीपों के साथ मेल खाती है:
- जम्बू: एशिया
- शक: ऑस्ट्रेलिया
- कुश: उत्तरी अफ्रीका
- शाल्मलि: विषुवत रेखा के दक्षिण अफ्रीका
- प्लक्ष: यूरोप
- क्रौंच: उत्तरी अमेरिका
- पुष्कर: दक्षिण अमेरिका
विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, और भागवत पुराण में वर्णित पाताल लोक के सात स्तर (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल) भारतीय भूगर्भीय ज्ञान का प्रतीक हैं, जो पृथ्वी की आंतरिक संरचना को प्रतीकात्मक भाषा में प्रस्तुत करते हैं।
निष्कर्ष: मिथक से मुक्ति की आवश्यकता
यह सम्पूर्ण विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि भारत एक अत्यंत प्राचीन, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और वैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण राष्ट्र है जिसे वास्को डी गामा ने 'खोजा' नहीं, बल्कि केवल पश्चिमी व्यापार के द्वार खोले। भारत की खोज की अवधारणा एक औपनिवेशिक मिथक है जिसे शिक्षण, लेखन और सार्वजनिक विमर्श में चुनौती देने की आवश्यकता है।अब समय आ गया है कि हम इस विकृत इतिहास को छोड़कर, अपने सनातन गौरव को पहचानें, समझें और उस पर गर्व करें। भारत की खोज की नहीं, बल्कि उसकी पुनः स्थापना की आवश्यकता है—भारत की आत्मा के अनुरूप।
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