"इच्छाओं का विसर्जन"
जब तक मन अनगिनत इच्छाओं की नाव पर सवार रहता है, जीवन की हर लहर उसे डगमगा देती है। इच्छाएँ हमें एक क्षण भी स्थिर नहीं रहने देतीं। कुछ पाने की लालसा, कुछ बचाने की चिंता और कुछ खो देने का भय—यही अंतहीन अशांति की जड़ है।
पर यह लहरें बाहर की नहीं होतीं। वे हमारे भीतर ही उठती हैं—मन के विकारों से, अपेक्षाओं से, अतृप्त आकांक्षाओं से। हम जितना उनसे लड़ते हैं, उतना ही थकते जाते हैं।
किंतु जैसे ही हम अपनी चाहतों की नाव से उतरने का साहस करते हैं, एक अद्भुत परिवर्तन घटित होता है। लहरें धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं। कोई अलग प्रयास नहीं करना पड़ता—बस इच्छाओं का बोझ उतार देना होता है।
यही आत्म-स्वरूप की पहचान है। जब भीतर कुछ पाने का लोभ नहीं रह जाता, तब हमें अपने अस्तित्व की सहज पूर्णता का अनुभव होता है। तब जीवन की हलचल हमें विचलित नहीं कर पाती।
इच्छाओं का विसर्जन कोई हानि नहीं, बल्कि असीम शांति की प्राप्ति है। यही वह आंतरिक आकाश है, जहाँ सारे प्रश्न विलीन हो जाते हैं और केवल मौन शांति शेष रहती है। इसी में सच्चा आनंद, सच्चा स्वाधीनता और आत्मा का विस्तार छिपा है।
आज ही इस नाव से उतरने का संकल्प करें। आप देखेंगे—परेशानियों की लहरें स्वयं शांत हो जाएंगी।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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