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"साझी पीड़ा"

"साझी पीड़ा"

ग़मज़दा आँखों में
जो एक ही पानी ठहरा है
वही उतर आता है
हर बार पलकों से
मानो किसी ने
हमारी और आपकी पीड़ा
एक ही संदूक में रख दी हो


ज़ख्म भी अलग कहाँ हैं
बस जगहें बदल गईं
कभी आपके सीने पर
कभी मेरे दिल के किसी कोने में
वही पुरानी टीस
वही पहचान की धूल
जिसे कोई देख नहीं पाता


हम अपनी व्यथा किससे कहें?
शहर की सड़कों पर
अजनबी चेहरों की भीड़ में
कोई सुनने वाला नहीं
सबको जल्दी है
अपनी कहानियों की ओर लौटने को


आपकी मेरी कहानी
शब्दों में बंधने से रह जाती है
जैसे कोई गुमनाम संगीत
कानों तक पहुँच कर भी
पहचाना न जाए
फिर भी
कभी किसी ठंडी रात
या उदास दोपहर में
ये कहानी
किसी आँसू में
चुपचाप
ढल जाती है


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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