दहेजुआ भैंस की जन्मपत्री
कमलेश पुण्यार्क 'गुरूजी'शब्दजाल में ज्यादा न उलझना पड़े, इसलिए पहले ही अगाह कर दूँ कि ‘दहेज’ माँगनेवाले के मुँह के आकार और देनेवाले की हैसियत, औकात, ललक के मुताबिक दास-दासी, दौलत, जोत-जमीन, चल-अचल कुछ भी दहेजुआ हो सकता है यदि, तो भैंस क्यों नहीं ! दूसरी बात ये कि जन्मपत्री कालखण्ड विशेष पर आधारित, भावी परिणाम का सूचना-पत्र मात्र है। तदनुसार आदमी की कुण्डली यदि बनायी जा सकती है, तो भैंस की क्यों नहीं ! सोढ़नदासजी के पिताजी अपने इलाके के जाने-माने ज्योतिषी थे और भिषगाचार्य जी अपने इलाके ही नहीं, दूर-दूर के इलाकों तक अपना घोड़ा दौड़ाते रहते थे। उन्हें साक्षात् धन्वन्तरी का अवतार माना जाता था आसपास के रजवाड़ों में, जिनके स्पर्श और आशीष से मुर्दा भी उठ खड़ा हो जाए। दरअसल उन दिनों बाहर से लकदक, भीतर से खोखले ‘खूनचूसू’ नर्सिंगहोमों का चलन नहीं हुआ था। आज की तरह नोट की गड्डियों की तो बात ही नहीं थी, मूली-गाजर, आलू-शक्करकन्द की झोली से भी जान बच जाती थी गरीब-गुरबों की।
ज्योतिषाचार्यजी ने अपने इकलौते सुपुत्र के लिए कुछ भी दहेज माँगा नहीं और भिषगाचार्यजी के चमचों-बेलचों ने उनके सुधुआपन का लाभ उठाते हुए कुछ खास देने नहीं दिया । बस, यूँ ही, दोनों की प्रेम-प्रतिष्ठा निभ गई। स्वागत-सत्कार में कोर-कसर नहीं रहा, यही काफी था। वर को सुन्दर कन्या मिली, वाराती को सुस्वादु भोजन-विश्राम और समुचित विदाई...कुल मिलाकर सब सन्तुष्ट । लम्बे समय तक इस शादी-समारोह की चर्चा बनी रही दोनों समिधियाना क्षेत्र में। इधर कई वर्षों से लागातार अकाल ही अकाल चल रहा था। खासकर गैर सिंचित क्षेत्रों में रबी-खरीफ कुछ भी फसल ही नहीं, तो पशुओं का चारा कहाँ से जुटे ! भिषगाचार्यजी के चाटुकारों-सलाहकारों ने सुझाया कि नये वाले समधी तो नहरी क्षेत्र के हैं। उनके यहाँ बैल-गाय-भैंस का गुजारा हो जा सकता है। वैसे भी दहेज में कुछ दिया नहीं गया है। देने-लेने की तो कोई समय-सीमा होती नहीं—एक पंथ, दो काज हो जायेगा। भिषगाचार्यजी जरुरत से कुछ ज्यादा ही सुधुए थे और सलाहकार-चाटुकार कुछ ज्यादा ही चतुर। दो बैल, एक बछिया और पाँचवी बार गर्भवती एक भैंस चाकरों द्वारा पहुँचा दी गई समधियाना। किन्तु दो पहले वाले यानी पुराने समधियों और दामादों को बुरा न लगे, इसलिए कहा गया कि दोनों बैल तो अगली खेती के समय वापस ले ही आना है, जबकि बछिया हमेशा के लिए आपकी हो गई, किन्तु भैंस को यदि पाड़ा हुआ तो कोई बात नहीं, किन्तु पाड़ी हुई तो मँझले समधी को देने का पहले से ही करार है। हालाँकि अब तक के चारों गर्भ से पाड़ा ही पाड़ा जनी है ये भैंस। अतः इसके बावत भी आप निश्चिन्त ही रहें...। किन्तु ज्योतिषीजी भला क्योंकर निश्चिन्त रहते ! दहेजुआ भैंस के इसी ‘पाड़ा-पाड़ी’ शर्त ने ज्योतिषीजी की उत्सुकता बढ़ायी। नौकर-चाकरों से भैंस का भरावा समय पूछ-जानकर, उसका गर्भांकचक्र खींचकर सुरक्षित रख लिए। गौरतलब है कि गर्भांकचक्र के कुछ ग्रह विशेष उत्सुकता पैदा कर रहे थे। समय पर भैंस अपना बदनाम इतिहास बदल डाली—पाड़ा के बजाय पाड़ी पैदा हो गई। ज्योतिषीजी मन ही मन मुस्कुराए—सन्तानभाव में मंगल के साथ बैठे राहु-शनि पर केतु की दृष्टि बहुत कुछ संकेत दे रही थी। फिर भी समय यानी होनहार का इन्तजार करते रहे। पाड़ी जनने के तीन महीने बाद बुढ़िया भैंस एक पुराने कुएँ में गिर कर आत्महत्या कर ली, क्योंकि माता सत्यवती की तरह सम्भावित महाभारत की आशंका उसके लिए शायद असह्य हो रही थी। हालाँकि महर्षि व्यास के आश्रम में चले जाने मात्र से महाभारत तो रुकना नहीं था, उसी भाँति भैंस के कालकवलित हो जाने मात्र से भिषगाचार्जजी के समधियों, दामादों और पुत्रियों का दहेजुआ विवाद सलटने वाला तो था नहीं। अकाल का दुर्दिन काटने के नाम पर जब से भैंस भेजी गई थी नये समधीजी को, तबसे ही चर्चा का विषय बनी हुयी थी। लम्बे समय से सारा ससुराली माल ढकारते आ रहे बड़े और मंझले जामाताओं की छाती पर साँप लोट रहा था। बेवजह के आकाशकुसुम खिला रहे थे, जिनमें फूलों के नाम पर काँटे ही काँटे थे। ऐसे में सदा क्रूरः सदा वक्रः सदा पूजामुपेक्षते, कन्याराशिस्थिते लोके जामाता दशमो ग्रहः की उक्ति चरितार्थ हो रही थी। धनधान्य सम्पन्न, शास्त्रमर्मज्ञ समधियों की भी नींद हराम हो रही थी—महज एक भैंस की पाड़ी के चक्कर में, मानों स्वर्गलोक की कामधेनु के लिए शोक-सन्तप्त हो रहे हों। चिट्ठी-पत्री-संवाद-विवाद से जी न भरा तो, सीधे पहुँच गए समधियाना फेंटा बाँधकर। इधर छोटे समधी के घर भैंस की पाड़ी पलती-बढ़ती रही, उधर भिषगाचार्चजी के आँगन में आए दिन पाड़ी-पुरान पर संवाद नए-नए विवाद को जन्म देता रहा। तर्क-वितर्क, तू-तू-मैं-मैं मर्यादाओं की सीमाएँ लाँघने लगा। इधर दूध देने वाली भैंस तो असमय में ही चली गई। दूध पीने का सौभाग्य मिला नहीं किसी को, पाड़ी का लालन-पालन करते और पाती पेठाते-पेठाते छोटे समधी जी के भी धैर्य का बाँध भरभराने लगा—लगता है कि हमको चरवाहा समझ लिए हैं...। मजेदार बात ये थी कि शर्त के अनुसार पाड़ी के हकदार मझले समधीजी थे, किन्तु वे चालाकी से टाल-मटोल करते रहे—पाड़ी पल-पुश कर तैयार हो जाए, तब न लावें । साल-छः महीने और गुजुर गए। भैंस-सेवा और धैर्य का चरमराया पाँच साल पुराना बाँध विखर कर जलप्लावन के वजाय क्रोधानल भड़का गया। भिषगाचार्यजी के नाम गैस-गुब्बार वाला लम्बा-चौड़ा पाती लिखकर, छोटे समधीजी अपने चरवाह के साथ पाड़ी को समधियाना विदा कर दिए। ज्योतिषाचार्यजी तो पहले ही भैंस की पाड़ी की जन्मपत्री बना चुके थे। दैव भी कुछ ऐसा ही दिखाने पर तुला था। भैंस की पाड़ी कोई साधारण पाड़ी नहीं, बल्कि चारों समधियों के पूर्व जन्म का शत्रु रहा होगा, जो अपना बैर साधने को यहाँ आया था। दोनों समधियाने के बीच नेशनल हाईवे—जी.टी.रोड पार करना होता था। ऐन बीच सड़क पर चरवाह को झिट्टीमारकर पाड़ी पगहा छुड़ा कर भाग खड़ी हुयी और सामने से आते हुए एक ट्रक से टकरा गई। मामला वहीं साफ हो गया—माँ ने कुँए में कूद कर जान दी थी, वेटी बीच सड़क पर आत्महत्या की। उसे भला क्योंकर अपने पुराने दुश्मन के घर जा बसने का शौक होता !
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