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स्मृति और शून्य के बीच

स्मृति और शून्य के बीच

सजल नयन चुपचाप उठे थे,
मन में था प्रश्न सधा-सधा —
"क्यों छूट गया संग जीवन का,
जब मन था पीड़ा से गढ़ा?"

बाजारों की कोलाहल में,
सब थे जैसे अनजाने से —
हर चेहरा था एक मुखौटा,
हर हँसी बिन अर्थ पुराने से।
और तुम चल दिए निःशब्द,
ना संकेत, ना कोई बात —
जैसे शंख मूक हो जाए,
और तट हो मौन, निश्वासित-सा।

मैंने सोचा — लौटोगे तुम,
बनकर एक तेजस्वी ध्यान।
त्याग-व्रत की अग्नि में तपकर,
बुद्ध सम निस्पृह, निर्वाण।
जैसे किसी ऋषि की दृष्टि में
जग हो केवल ब्रह्म-विहीन,
भाव रहे, पर बंध न पावे,
शांत, निश्छल, ज्योति-सीन।

पर जो लौटे — थके-थके थे,
शब्द नहीं, मुख पर संताप।
नयन बोले — कितनी पीड़ा,
कितने स्वप्न, कितने अभिशाप।
न परिचय, न पास की गरिमा,
बस मौन, गहराता जाता —
मन का सारा तेज बुझा-सा,
प्राण कहीं थककर रुक जाता।

मैंने सोचा — छू लूँ उसको,
पिघलूँ उसके मौन हृदय में —
पर वो हाथ काँपते पाए,
अपने ही दुर्बल प्रयास में।
ना आलिंगन, ना मुस्कानें,
ना वह सहज अपनापन था —
था केवल अंतर की दूरी,
जो हर क्षण सघनतम बनता।

क्या सच में भाग चलाना ही,
थी मुक्ति, या एक भ्रम-छाँह?
जो पाया, वह कुछ न कह पाया,
बस दे गया शेष एक आह।
और मैं खड़ी रही चुप-सी,
अधरों पर सिहरते प्रश्न लिए —
स्मृतियाँ ना भर सकीं शून्य वह,
ना काल ही स्नेह सहे।

. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)

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