ब्रह्मण बनना सबको है, पर गालियाँ भी उसी को क्यों?
डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतीय समाज की जड़ों में ब्राह्मण न केवल एक जाति का नाम है, बल्कि यह एक जीवन दृष्टिकोण, एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व और एक नैतिक अनुशासन का प्रतीक भी है। किंतु यह एक बड़ा आश्चर्यजनक एवं विडंबनापूर्ण दृश्य है कि आज हर व्यक्ति ब्राह्मण बनने की आकांक्षा तो रखता है – चाहे ज्ञान, पूजा, कर्मकांड, या आध्यात्म के क्षेत्र में – परंतु ब्राह्मण को अपमानित करना, उसका उपहास उड़ाना और उसे गालियाँ देना भी फैशन में शामिल हो गया है। यह मानसिकता न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि सामाजिक बौद्धिक दिवालियापन की ओर भी संकेत करती है।
ब्राह्मणत्व क्या है?
ब्रह्मणत्व जन्म से नहीं, कर्म से है — यह बात स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट की है। ब्राह्मण वह है जो तपस्वी है, स्वाध्यायरत है, सत्यप्रिय है, और लोककल्याण में संलग्न है। उसके कंधों पर शास्त्रों की रक्षा, यज्ञों का संचालन, संस्कारों का निर्धारण, और समाज को दिशा देने की ज़िम्मेदारी रही है। वह वह दीपक है जो स्वयं जलकर औरों को प्रकाश देता है।
समाज की मानसिकता में द्वैत क्यों?
आज की सामाजिक सोच में एक द्वैत साफ़ दिखाई देता है – ब्राह्मण के ज्ञान, मंत्रों, शांति पाठ, और धार्मिक अनुशासन की सबको ज़रूरत है। विवाह से लेकर मृत्युपर्यंत हर संस्कार में ब्राह्मण चाहिए। लोग स्वयं अपने बच्चों को वेदपाठी, पंडित, ज्योतिषी, या विद्वान देखना चाहते हैं, परंतु जब बात समाज में ब्राह्मण की प्रतिष्ठा की आती है तो वही लोग आलोचना का ज़हर उगलने लगते हैं।
यह कहाँ का न्याय है कि जिस वर्ग को आप अपने जीवन के सबसे पवित्र और नाज़ुक क्षणों में आमंत्रित करते हैं, उसी वर्ग को सामाजिक मंचों और सोशल मीडिया पर गालियाँ देते हैं?
ब्राह्मणों पर दोषारोपण: अज्ञान या योजनाबद्ध अभियान?
कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मणों ने शोषण किया, भेदभाव फैलाया – यह बात जितनी कही जाती है, उतनी ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्ट नहीं है। बल्कि यह कहना ज़्यादा समीचीन होगा कि ब्राह्मणों ने समाज को शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, दर्शन, और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में दिशा दी। आज भी देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक, विचारक, आध्यात्मिक मार्गदर्शक ब्राह्मण ही हैं। फिर यह दोषारोपण किसलिए?
यह प्रश्न हमें सोचने पर मजबूर करता है – क्या यह ब्राह्मणों को नीचा दिखाने की एक योजनाबद्ध कोशिश है ताकि समाज से ज्ञान का यह केंद्रवर्ती स्तम्भ समाप्त किया जा सके?
आत्ममंथन की आवश्यकता
यदि वास्तव में हम एक समरस और सुसंस्कृत समाज चाहते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि ब्राह्मण समाज की रीढ़ रहा है – न कि इसलिए कि वह श्रेष्ठ है, बल्कि इसलिए कि उसने सदियों तक त्याग और तपस्या से समाज की सेवा की है। ब्राह्मण होना कोई गर्व की वस्तु तभी बनती है जब वह अपने आचरण में सात्त्विकता और समाज के प्रति समर्पण बनाए रखे।
साथ ही, ब्राह्मणों को भी आत्ममंथन करना होगा – क्या हम अपने आचरण, भाषा, वेशभूषा, और व्यवहार से समाज में एक आदर्श प्रस्तुत कर पा रहे हैं? क्या हम वास्तव में उसी ब्रह्मणत्व की परंपरा को निभा रहे हैं जिसकी कल्पना ऋषियों ने की थी?
ब्राह्मण को गाली देना एक फैशन नहीं, एक विकृति है। और ब्राह्मण बनना एक अधिकार नहीं, एक उत्तरदायित्व है। जब समाज यह समझ जाएगा कि ब्राह्मण कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि एक विशेष सेवा का नाम है, तब वह उसे सम्मान देना सीखेगा।
जब तक यह भ्रम बना रहेगा कि "ब्रह्मण तो आराम से बैठकर मंत्र पढ़ते हैं," तब तक समाज अपनी ही जड़ों को काटता रहेगा।
आज आवश्यकता है उस दृष्टिकोण की पुनर्प्राप्ति की, जिसमें ब्राह्मण केवल जाति नहीं, बल्कि चरित्र का प्रतीक था – एक ऐसा चरित्र जो अपने तप से राष्ट्र का भविष्य गढ़ता था।

राष्ट्रीय महासचिव – भारतीय जन क्रांति दल
सामाजिक विचारक एवं आर्थिक सलाहकारसम्पादक – 'दिव्य रश्मि' पत्रिका
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