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योग और पर्यावरण: जीवन की सार्थकता के लिए दो ध्रुव शक्तियाँ

योग और पर्यावरण: जीवन की सार्थकता के लिए दो ध्रुव शक्तियाँ

लेखक – अवधेश झा

मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति नहीं है, बल्कि आत्मा की उन्नति और प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जब हम "सार्थक जीवन" की बात करते हैं, तो वह केवल बाह्य उपलब्धियों तक सीमित नहीं होता, बल्कि आंतरिक संतुलन और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता उसमें मूल रूप से समाहित होती है। इस संदर्भ में अध्यात्म और पर्यावरण—ये दो ऐसे स्तंभ हैं, जिन पर सम्यक् और समृद्ध जीवन की नींव रखी जा सकती है।

योग आत्मा की ओर लौटने की एक आध्यात्मिक यात्रा है—स्वयं की खोज, जीवन के गहरे उद्देश्य को जानने की जिज्ञासा, और उस परम सत्य से जुड़ने की साधना, जो भौतिक जगत से परे है। यह केवल पूजा-पाठ या शरीर साधना तक सीमित नहीं, बल्कि एक समग्र जीवनशैली है, जो हमें अहिंसा, संतोष, सत्य, करुणा और स्वाध्याय जैसे जीवन-मूल्यों के प्रति जागरूक बनाती है। जब हम योग से जुड़ते हैं, तो आत्मसंयम, विनम्रता और सह-अस्तित्व की भावना विकसित होती है। यह दृष्टि हमें केवल मानव समाज ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि—प्रकृति, जीव-जंतुओं, वृक्षों, नदियों और पर्वतों के प्रति भी श्रद्धा से भर देती है। यही श्रद्धा हमें पर्यावरण की रक्षा हेतु प्रेरित करती है।


पर्यावरण जीवन का आधार और ऊर्जा का स्रोत है। वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और आकाश—ये पंचमहाभूत न केवल हमारे शरीर के घटक हैं, बल्कि हमारे समग्र अस्तित्व की नींव हैं। जब पर्यावरण प्रदूषित होता है, तो केवल शरीर ही नहीं, मानसिक और आत्मिक शांति भी बाधित होती है। वर्तमान समय में, जब धरती जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और प्रदूषण जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है, तो यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम प्रकृति को देवस्वरूप मानकर उसका संरक्षण करें—जैसे हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वृक्षों, नदियों, पर्वतों और पशु-पक्षियों को पूजनीय समझा।


योग और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है। योग सिखाता है कि सृष्टि का प्रत्येक कण चेतना से परिपूर्ण है। जब यह भावना जागृत होती है, तब मनुष्य शोषण की प्रवृत्ति को त्यागकर संरक्षण का मार्ग अपनाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’—कि समस्त पृथ्वी एक परिवार है—यह भावना योग और पर्यावरण के सामंजस्य से ही विकसित होती है। गंगा को माँ, वृक्षों को देवता, गौ को माता और नवग्रहों की पूजा—भारतीय संस्कृति के ये आयाम पर्यावरण के प्रति श्रद्धा और चिरस्थायी प्रेम की अभिव्यक्ति हैं।


जीवन की सार्थकता संतुलन में है। जब हम योग के माध्यम से आत्मा की शुद्धि करते हैं और पर्यावरण से एकात्मता अनुभव करते हैं, तब हमारा जीवन न केवल संतुलित, बल्कि शांतिमय, समाजोपयोगी और सृजनात्मक बनता है।


आज की भौतिकता-प्रधान दौड़ ने मनुष्य को न केवल प्रकृति से दूर कर दिया है, बल्कि उसे आत्मिक शून्यता की ओर भी धकेल दिया है। इस शून्यता को भरने का एकमात्र उपाय है—अंदर की ओर लौटना, और बाहरी प्रकृति को भी उतनी ही श्रद्धा से देखना। अध्यात्म और पर्यावरण जीवन के दो ऐसे ध्रुव हैं, जो परस्पर पूरक हैं—एक हमें आत्मा से जोड़ता है, दूसरा हमें सृष्टि से। दोनों के अभाव में जीवन अधूरा है।


यदि हम संतुलित, शांतिपूर्ण और स्थायी भविष्य की कामना करते हैं, तो योग और पर्यावरण के समन्वय को अपने जीवन में अपनाना आवश्यक है। यही समन्वय हमारे जीवन को न केवल सार्थक बना सकता है, बल्कि समाज और संपूर्ण सृष्टि के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

(लेखक: अवधेश झा, वेदांत दर्शन, योग और ज्योतिष के चिंतक हैं।)
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