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दिया जल रहा है दिल की दरगाह में कब से।

दिया जल रहा है दिल की दरगाह में कब से।

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
दिया जल रहा है दिल की दरगाह में कब से।
सुरे बाँसुरी घुट रहा सूने खानकाह में कब से।
तराजू पे चढ़ी है आदमीयत सरे बाजार यारब,
औ उछल रहे हैं तमाशबीन वाह-वाह में कब से।
कहते हैं,मत कहो जो हो जमाने को नापसंद,
प्राण हैं कि बिफर पड़ने की ही चाह में कब से।
रात आधी औ उमड़ आए ये बादल खबीस,
आँखें बिछाए मैं तनहा तेरी राह में कब से।
जो भी मिलते हैं सब वैसे ही नासेह खालिस,
कोई दर्द भी बँटाए,जुस्तजू है निगाह में कब से।
काँटे जो हैं बाँटे में मेरे उन्हें ही दे दो बखुशी,
सूखा ही भला मैं फूलों की परवाह में कब से।
मिल-बैठने को बिछाते थे पीताम्बर,वो कहाँ हैं?
मुब्तिला मैं यहाँ इंतिजार की पनाह में कब से।

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