डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: एक भारत, एक विधान, एक निशान, एक संविधान का स्वप्न और उसका यथार्थ
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतीय राजनीति और राष्ट्रनिर्माण के इतिहास में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वे एक ऐसे विचारक, संगठनकर्ता और राष्ट्रभक्त नेता थे, जिन्होंने भारत की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। आज उनके बलिदान दिवस पर उन्हें कोटि-कोटि नमन करते हुए यह प्रश्न अनायास ही उठता है कि क्या हम उनके सपनों के भारत की ओर बढ़ सके हैं? क्या उनका 'एक राष्ट्र, एक विधान, एक निशान, एक संविधान' का स्वप्न आज साकार हुआ है? इस आलेख में हम उनके जीवन, विचारों, संघर्षों और बलिदान के साथ-साथ इस प्रश्न की विवेचना करेंगे कि उनके विचारों का देश पर क्या प्रभाव पड़ा और आज हम कहाँ खड़े हैं।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन परिचय: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कोलकाता के एक शिक्षित और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद् और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे। डॉ. मुखर्जी ने कम उम्र में ही शिक्षाविद् और प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपनी पहचान बनाई। वे 33 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे युवा कुलपति बने। लेकिन उनके जीवन का सबसे बड़ा अध्याय भारतीय राजनीति और राष्ट्र सेवा में लिखा गया।
राजनीति में पदार्पण और राष्ट्रवादी विचारधारा: डॉ. मुखर्जी का राजनीति में प्रवेश राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित था। उन्होंने कांग्रेस के साथ प्रारंभिक दौर में काम किया लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण और विभाजन की राजनीति के विरोध में उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। वे मानते थे कि भारत को धर्म के आधार पर विभाजित करना घातक होगा और यह देश की एकता के लिए संकटपूर्ण है। उन्होंने पंडित नेहरू की कश्मीर नीति का मुखर विरोध किया और कहा, "एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे।"
कश्मीर मुद्दा और बलिदान: भारत के विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने के लिए संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया। डॉ. मुखर्जी इसके सख्त विरोधी थे। उनका मानना था कि यह प्रावधान भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा है। उन्होंने नारा दिया - "एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे।" उन्होंने जम्मू-कश्मीर जाने का निश्चय किया, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई।
भारतीय जनसंघ की स्थापना: 1951 में डॉ. मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के रूप में उभरी। जनसंघ के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक गौरव और अखंड भारत की अवधारणा को राजनीतिक दिशा दी। उनका संगठन आज के भारत में प्रमुख राजनीतिक धारा बन चुका है।
शिक्षा और सांस्कृतिक चेतना: डॉ. मुखर्जी का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान अतुलनीय था। वे भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त कर, भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित बनाना चाहते थे। वे मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान नहीं, बल्कि राष्ट्रप्रेम, चरित्र निर्माण और सामाजिक समरसता होना चाहिए।
डॉ. मुखर्जी का स्वप्न: एक राष्ट्र, एक विधान, एक निशान, एक संविधान: उनकी इस परिकल्पना का उद्देश्य भारत की एकता, समानता और समरसता को सुनिश्चित करना था। वे मानते थे कि जब तक पूरे देश में समान संविधान, समान कानून और एक राष्ट्रीय ध्वज नहीं होगा, तब तक भारत पूर्णतः अखंड नहीं माना जा सकता। उनका यह विचार आज भी भारतीय राजनीति में अत्यंत प्रासंगिक बना हुआ है।
अनुच्छेद 370 की समाप्ति: एक स्वप्न की पूर्ति: 5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाकर जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों की तरह बना दिया। यह निर्णय डॉ. मुखर्जी के स्वप्न की पूर्ति की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था। इस निर्णय से यह संकेत गया कि अब भारत एक राष्ट्र, एक संविधान और एक निशान की दिशा में बढ़ रहा है। यह उनके बलिदान का ही परिणाम है कि आज जम्मू-कश्मीर की स्थिति में परिवर्तन आया है।
आज का भारत और डॉ. मुखर्जी का स्वप्न: आज भारत में समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा नीति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर चर्चाएँ हो रही हैं। यह प्रमाण है कि डॉ. मुखर्जी की विचारधारा आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया, वे आज राष्ट्रनीति का हिस्सा बन चुके हैं। हालाँकि अभी भी समान नागरिक संहिता और शिक्षा नीति पर व्यापक क्रियान्वयन शेष है।
आलोचना और प्रश्न: कुछ विचारधाराएँ डॉ. मुखर्जी के विचारों को संकीर्ण या बहुसंख्यकवादी कहती हैं। लेकिन यह आलोचना इस तथ्य की उपेक्षा करती है कि उनका उद्देश्य भारत को एक समान धरातल पर लाना था जहाँ सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलें। उनका राष्ट्रवाद विभाजनकारी नहीं, बल्कि एकता और समरसता का प्रतीक था।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान भारत के इतिहास में एक युगांतकारी घटना थी। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर यह सिद्ध कर दिया कि राष्ट्र की एकता, स्वतंत्रता और सम्मान सर्वोपरि है। आज जब हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो यह आत्ममंथन भी आवश्यक है कि क्या हम उनके विचारों को जीवन में उतार सके हैं? क्या भारत एक राष्ट्र, एक संविधान, एक निशान, एक शिक्षा नीति की दिशा में सच्चे अर्थों में अग्रसर है?
उत्तर है - हम उस दिशा में हैं, परंतु अभी मंज़िल बाकी है। उनके विचारों को सम्पूर्ण रूप से साकार करना ही उनके बलिदान के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अमर रहें! वन्दे मातरम्!
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