ज्यादा काम, थका हुआ दिमाग - बदल देती है - मस्तिष्क की संरचना
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
काम के प्रति समर्पण और मेहनत करना हमेशा से मनुष्य का एक गुण माना गया है, लेकिन क्या हो जब यही गुण धीरे-धीरे हमारे मस्तिष्क की संरचना को ही प्रभावित करने लगे? हाल की शोध से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि लंबे समय तक काम करना केवल थकावट या स्ट्रेस तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दिमाग के भीतर भी बड़े बदलाव ला सकता है। दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में यह चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई है।
आज की तेज रफ्तार की जिन्दगी, विशेषकर डिजिटल युग में, 'ऑफ ड्यूटी' जैसी अब कोई बात नहीं रह गई है। ऑफिस खत्म होने के बाद भी, मेल और मैसेज के माध्यम से काम जारी रहता है। इस परिवेश में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि ऐसे जीवनशैली से मानसिक स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है। इस जरूरत को महसूस करते हुए चुंग आंग विश्वविद्यालय और योनसेई विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन को अंजाम दिया है।
अध्ययन में कुल 110 स्वास्थ्यकर्मियों को शामिल किया गया था। इनमें से 78 लोगों ने सप्ताह में निर्धारित मानक घंटों के अनुसार काम किया, जबकि 32 प्रतिभागियों ने 52 घंटे या उससे अधिक कार्य किया। इन दोनों समूहों की मानसिक स्थिति, कार्य-क्षमता और मस्तिष्क की संरचना की तुलना MRI स्कैन और अन्य वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से की गई।
अध्ययन के अनुसार, ग्रे मैटर, मस्तिष्क का वह हिस्सा होता है जो सूचना को प्रोसेस करता है। अध्ययन में यह देखा गया कि अधिक घंटे काम करने वाले लोगों में ग्रे मैटर की मात्रा में उल्लेखनीय अंतर आया है। विशेषकर मस्तिष्क के वह हिस्सा जो समस्या का समाधान, स्मृति और भावनात्मक संतुलन से जुड़ा होता हैं, उनमें कमी और असमानता देखी गई। इससे यह संकेत मिलता है कि ज्यादा काम करने वाले व्यक्ति की सोचने-समझने और निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। शोध में यह भी पाया गया कि सप्ताह में 52 घंटे से अधिक काम करने वालों में भावनात्मक नियंत्रण (Emotional Regulation) से जुड़े क्षेत्रों में भी असमानता थी। यानि वह लोग अधिक तनावग्रस्त, चिड़चिड़े या अवसादग्रस्त हो सकते हैं।
डिजिटल क्रांति ने, कार्य की गति और पहुँच तो बढ़ा दी है, लेकिन इसी के साथ ‘हमेशा ड्यूटी पर रहने’ की अनौपचारिक अनिवार्यता भी आई है। अब कार्यस्थल केवल एक जगह नहीं रह गया, बल्कि वह मोबाइल, लैपटॉप और यहां तक कि बेडरूम तक पहुंच गया है। इस मानसिकता ने सामान्य कार्य-घंटों की अवधारणा को ही चुनौती दे दी है। नतीजा यह हो रहा है कि शरीर विश्राम कर भी ले, लेकिन मस्तिष्क लगातार सक्रिय रहता है। इससे न केवल मानसिक थकान बढ़ती है, बल्कि दीर्घकालीन रूप से मस्तिष्क की संरचना और कार्यप्रणाली भी प्रभावित हो रहा है।
आज भारत समेत कई देशों में कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर स्पष्ट नीतियाँ नहीं बनाई गई हैं। अधिकांश कंपनियों में उत्पादकता और परिणामों पर जोर दिया जाता है, न कि कर्मचारियों के मानसिक संतुलन और जीवन संतुलन पर। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा अब केवल नैतिक समस्या नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और सामाजिक चिंता का विषय भी बन गया है।
विशेषज्ञ रूथ विल्किसन कहती हैं कि “इस महामारी जैसे संकट से उबरने के लिए नीतिगत और संरचनात्मक बदलाव जरूरी हैं। कर्मचारियों के लिए कार्य के घंटों की सीमा, नियमित ब्रेक और डिजिटल डिटॉक्स जैसे उपाय अनिवार्य रूप से होना चाहिए।”
आज के समय में केवल यह कहना कि संतुलन बनाए रखें, पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि कार्यसंस्कृति को ऐसे नियम और माहौल देना होगा, जिससे कर्मचारी खुद को मानसिक रूप से सुरक्षित महसूस कर सके। हमारे समाज में मनोरंजन और विश्राम को अक्सर आलस्य समझा जाता है, जबकि यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि नींद या पोषण। कर्मचारियों को नियमित अवकाश, ब्रेक और डिजिटल डिटॉक्स देने की नीति, हर संगठन में होनी चाहिए। इससे मानसिक रूप से ताजगी महसूस होगी और उत्पादकता भी बढ़ेगी।
कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति में नींद की गुणवत्ता में गिरावट, चिड़चिड़ापन या गुस्सा, एकाग्रता में कमी, स्मरण शक्ति में गिरावट, मानसिक थकान जो छुट्टी के बाद भी दूर न हो और लगातार सिरदर्द या तनाव के लक्षण/लक्षणों का अनुभव हो रहा हो तो यह संकेत हो सकता है कि आपको कार्य और विश्राम के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से परामर्श लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।
जापान में 'करोशी' (अत्यधिक काम से मृत्यु) जैसी घटनाओं के बाद, सरकार ने अधिकतम कार्य घंटे की सीमा तय की है। साथ ही, कर्मचारियों को ओवरटाइम का भुगतान और मानसिक स्वास्थ्य सुविधा देना अनिवार्य कर दिया गया है। फ्रांस में ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ कानून लागू है, जो कर्मचारियों को कार्य समय के बाद मेल या कॉल का उत्तर देने से मना करता है। जर्मनी में कई कंपनियाँ कर्मचारियों के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता उपलब्ध कराता हैं और डिजिटल उपकरणों को सीमित समय के लिए चालू रखने की नीति अपनाई है।
भारत में भी ऐसे कानूनों की जरूरत महसूस किया जा रहा है, जो कार्य घंटों का सीमा तय हो और उल्लंघन करने पर कंपनियों को दंडित किया जा सके। हर निजी और सरकारी संगठन में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्पष्ट और व्यावहारिक नीति होनी चाहिए। इसमें काउंसलिंग, छुट्टियाँ, ब्रेक और कार्य संतुलन के उपाय शामिल होना चाहिए। बचपन से ही विद्यार्थियों को ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ का महत्व सिखाया जाय ताकि भविष्य में मानसिक रूप से मजबूत और संतुलित पेशेवर बन सके।
“श्रम ही जीवन है” यह कहावत पूर्णतः सही है, लेकिन यदि श्रम इतना बढ़ जाए कि जीवन ही खतरे में पड़ जाए, तो यह विडंबना बन जाती है। आज जब कार्य संस्कृति दिन-ब-दिन और अधिक प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है, तो यह आवश्यक हो गया है कि मानसिक स्वास्थ्य की अहमियत को समझा जाए और समय रहते नीतिगत और व्यक्तिगत बदलाव किया जाए। यह सर्वविदित है कि एक स्वस्थ दिमाग ही रचनात्मकता, उत्पादकता और खुशी की असली कुंजी है। यदि मस्तिष्क ही संतुलित नहीं रहेगा, तो कोई भी कार्य लंबे समय तक सार्थक नहीं रह सकता है।
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