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"वियोग की राख में सुलगती कहानियाँ"

"वियोग की राख में सुलगती कहानियाँ"

कुछ न रह सका
जहाँ कभी तुम्हारी हँसी की गूँज थी,
अब वहाँ
सिर्फ़ सन्नाटा साँस लेता है—
धीरे, भारी, उदास।


तुम चले गए,
पर पीछे छोड़ गए
वे क्षण
जो अब समय नहीं,
पीड़ा बन चुके हैं।


कहानी वही है,
बस पात्र बदल गए हैं—
तुम स्मृति बन गए,
और मैं...
एक प्रश्न
जिसका उत्तर कोई स्पर्श नहीं देता।


यह जो वीराना है,
यह सिर्फ़ बाहर नहीं,
मन के भीतर भी फैल गया है—
जैसे चाँदनी रात में
धुआँ घुल गया हो।


तुम्हारी अनुपस्थिति
अब एक उपस्थित सत्य है,
जो हर सुबह मेरी आँखों में
नींद की जगह उतर आता है।


और फिर—
मैं चल पड़ता हूँ
उस जीवन में
जहाँ तुम नहीं हो,
पर तुम्हारी कहानियाँ
अब भी मेरी साँसों में
धीरे-धीरे जलती रहती हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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