पिता
पिता का हृदय सागर से गहरा ,पितु स्थान है लंबे चौड़े व्योम ।
पर्वत सा अडिग होते हैं पिता ,
पुत्र मोह हेतु जैसे हृदय मोम ।।
पुत्र मोह में पिता पीत्त मारता ,
खाने पीने का नहीं कोई गम ।
पुत्र पालन में कोई कमी नहीं ,
चाहे जितना भी निकले दम ।।
पुत्र समक्ष पिता उदास नहीं ,
न होने देते इसका एहसास ।
हर चाहत पुत्र का पूरा करना ,
चाहे बने वह किसी का दास ।।
वह बहुत होता भाग्यशाली ,
जिनपे जीवित पिता साया ।
जिन तन से पितु साया उठा ,
उनका रोता आजीवन काया ।।
दुर्भाग्य रहा हमारा भी यह ,
बचपन में पितु सिधार गए ।
अरुण दिव्यांश रोया किस्मत ,
उनके शीश से पितु प्यार गए ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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