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दर्पण

दर्पण

दर्पण देख शृंगार कर ,
हुस्न से निज प्यार कर ।
मिले मिलानेवाला मन ,
उसे भी तू स्वीकार कर ।।
दर्पण बताए तन का दाग ,
मन का दाग कौन बताए ।
हृदय रूपी दर्पण देखो ,
मौन हो मन दाग मिटाए ।।
जिस दर हो दर्प यदि ये ,
उसका दर्पण क्या करेगा ?
बैठता जाए मन का मैल ,
दर्प दंड भोगना पड़ेगा ।।
दर्पण उसे देता सहारा ,
खुले मन से अर्पण करे ।
मन में न हो कोई मैल ,
वाह्य मार्गदर्शन दर्पण करे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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