जिनके आँगन बड़े बड़े हैं, वो भी चक्की भूल गये,
अम्मा जब से गयी छोड़कर, चूल्हा चौका छूट गये।कौन बुहारे घर का आँगन, कौन बिछायेगा खटिया,
नये दौर की बहुओं के तो, सब काज पुराने छूट गये।
छूट गयी चूल्हे की रोटी, साग पतीली का ग़ायब,
जीरा हींग की सौंधी खुश्बू, मक्का की रोटी ग़ायब।
सिमट गये चिमटा फूँकनी, पीतल काँसे के बर्तन,
ढींढी लोटा टोकनी ग़ायब, काँसे का बेल्ला गायब।
आया दौर तरक़्क़ी का, पीढ़ा- पटरी निपट गयी,
डबल बेड के फ़ैशन में तो, नयी पीढ़ी निपट गयी।
मर्यादाएँ हुयी तार तार, अब संस्कारों का पता नही,
बड़े सिरहाने छोटे पायंत, वह संस्कृति निपट गयी।
ख़त्म हुआ लाज का घूँघट, और बड़ों का आदर मान,
रिश्ते नाते सम्बन्धों से, मिलता था परिवार को मान।
अर्थ हुआ हावी सब पर, कोठी बंगला गाड़ी घर पर,
सज्जनता अवगुण कहलाता, दुर्जन को मिलता मान।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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