आरंभ नहीं तो अंत नहीं ,
व्यवहार बिन ये संत नहीं ।होते नेक मार्ग प्रशस्त नहीं ,
विचार बिन नेक पंत नहीं ।।
आरंभ संग कहीं अनंत है ,
आरंभ संग कहीं ये अंत है ।
बदलाव है सृष्टि का नियम ,
धूप छाॅंव तो कहीं बसंत है ।।
छोटे बड़े तन में देख लो ,
सबमें समाया यह तंत है ।
कहीं दिगंत कहीं दिवंत ,
कहीं बैठा होता सुमंत है ।।
आरंभ में ही है अंत समाया ,
आरंभ नहीं तो कहाॅं अंत है !
आरंभ होता बहुत सुहावन ,
जहॅं अंत नहीं बसते श्रीकंत हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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