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पर्वतों पर मेघ की धूमिल हुई चादर

पर्वतों पर मेघ की धूमिल हुई चादर

डॉ रामकृष्ण मिश्र
बिछ गयी ज्यों मानिनी मधुमास का काजल।।
दृष्टि के पाथेय का संदर्भ परिचित सा
अनुभवों की चट बिछा मन कुछ सशंकित‌ सा
कोंपलों की गात फिसले अम्बुमुक्ता कण।।


मंदिरों की घंटियों के खुल गये वे स्वर
मौन थे जो लिख रहे पहचान के आखर
हवन कुण्डों से छलक उठने लगा फिर धुम
शून्य में विवृत असीमित वन गया जाकर।।
भीगता है हृदय का भी भावमय क्रंदन।।


वनों में तरु शाख पर या कंदराओं में
झुरमुटों में पर्वतों की कटु शिराओं में‌ं
अचेतन जगता हुआ सा कुल बुलाता है
एक अरुणिम स्नेह फैला हर दिशाओं मे।।
और धरती वाँटती अभिसार अभिनन्दन। 62 ।

रामकृष्ण
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