ग़लतियाँ फिर से वही दोहरा रहे हैं,
गौरी के गुनाहों पर पर्दा गिरा रहे हैं।फ़ितरत है जिस कौम की दग़ाबाज़ी,
ग़द्दारों को सजा से क्यों बचा रहे हैं?
होती हैं सियासत में बहुत सी बातें,
आरोप प्रत्यारोप चालबाजी व घातें।
जीत के दरवाजे पर अपनी सेनाएं,
क्यों मिली पाक को विराम सौग़ातें?
पीडायें मन में बहुत हैं आदमी के,
अपेक्षायें मन में बहुत आदमी के।
था भरोसा पी ओ के आ जायेगा,
सपने सुहाने टूट गये हैं आदमी के।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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