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दिव्य रश्मि: बेजोड़ धार्मिक पत्रिका

दिव्य रश्मि: बेजोड़ धार्मिक पत्रिका

लेखक: लक्ष्मण पाण्डेय, अधिवक्ता
पत्रकारिता समाज का चौथा स्तंभ मानी जाती है, लेकिन धार्मिक पत्रकारिता वह संजीवनी है जो लोगों को न केवल सूचना देती है, बल्कि उन्हें जीवन के गहरे अर्थों से भी परिचित कराती है। 'दिव्य रश्मि' ने इस क्षेत्र में अपनी अनूठी पहचान बनाई है। यह पत्रिका सनातन संस्कृति, वेदों की गरिमा, उपनिषदों की गंभीरता और लोक कल्याण की भावना को आधुनिकता के साथ जोड़ने का प्रयास करती है।

आम तौर पर आज की पत्रकारिता सनसनीखेज विषयों तक सीमित होती जा रही है, परन्तु ‘दिव्य रश्मि’ ऐसे दौर में भी अपने मूल्यों से डिगे बिना, सत्य, धर्म और सदाचार की बात करती रही है। यह पत्रकारिता के उस आदर्श स्वरूप को जीवित रखे हुए है, जो आज से कुछ दशक पहले भारतीय मनीषियों द्वारा देखा गया था।

‘दिव्य रश्मि’ ने किसी एक पंथ, एक संप्रदाय या एक धर्म की सीमा में स्वयं को कभी सीमित नहीं किया। यह पत्रिका समस्त भारतीय धार्मिक चेतना की वाहक रही है। हिन्दू धर्म के विविध आयामों के साथ-साथ इसमें जैन, बौद्ध, सिख, और यहां तक कि सूफी परंपरा के मूल्य भी प्रकाशित हुए हैं।

इस पत्रिका का उद्देश्य हमेशा से यह रहा है कि भारतीय संस्कृति की विविधता को एक सूत्र में पिरोया जाए। जब हम इसमें विभिन्न त्योहारों, परंपराओं, और धर्म गुरुओं के विचारों को पढ़ते हैं, तो एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित होता है। इससे पाठक के भीतर सहिष्णुता, समर्पण और स्वीकार्यता का भाव उत्पन्न होता है।

'दिव्य रश्मि' केवल लेखों तक सीमित नहीं रही। इसमें अनेक साहित्यिक विधाएं अपनाई गई हैं—जैसे:

  • धार्मिक कविताएँ: जो आत्मा को गहराई से छू जाती हैं।
  •  संत वाणी स्तंभ: जिसमें कबीर, तुलसी, नानक, रहीम जैसे संतों की व्याख्या की जाती है।
  •  संपादकीय टिप्पणियाँ: जो समसामयिक विषयों पर धार्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।
  • ‘बाल रश्मि’ अनुभाग: बच्चों के लिए धर्म को सरलता से समझाने का प्रयास।

इन सभी ने मिलकर ‘दिव्य रश्मि’ को एक संपूर्ण धार्मिक मासिक बनाया है, जो पाठकों की विविध रुचियों और मानसिकताओं के अनुरूप है।

इस पत्रिका की एक और विशेषता यह रही है कि इसके पाठक केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि इसके सह-निर्माता हैं। हर अंक के बाद सैकड़ों पत्र, सुझाव, प्रतिक्रियाएं और लेख भेजे जाते हैं, जो दर्शाते हैं कि इस पत्रिका ने लोगों के जीवन में कितनी गहरी छाप छोड़ी है।

पढ़ने वालों ने यह स्वीकारा है कि ‘दिव्य रश्मि’ पढ़कर उन्होंने अपने जीवन की दिशा बदली है—किसी ने नशा छोड़ दिया, किसी ने सेवा में खुद को समर्पित किया, किसी ने अपने परिवार में शांति लाई, तो किसी ने अपने बच्चों को धर्म की ओर मोड़ा।

ये अनुभव केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन के सूचक हैं।

'दिव्य रश्मि' ने नारी लेखन को विशेष स्थान दिया है। अनेक महिला लेखिकाओं ने इसमें स्त्री सशक्तिकरण, धर्म में नारी की भूमिका, गृहस्थ धर्म, देवी उपासना आदि विषयों पर सुंदर लेख प्रस्तुत किए हैं। इससे महिलाओं को भी आत्मप्रकाश का मंच मिला।

धर्म को केवल पुरुषों का विषय मानने की भूल को ‘दिव्य रश्मि’ ने तोड़ा है। इसने यह दिखाया है कि नारी शक्ति—साक्षात दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी—आज भी समाज में धर्म और संस्कार की वाहक हैं।

'दिव्य रश्मि' ने युवा पाठकों को भी लक्षित किया है। वर्तमान पीढ़ी इंटरनेट, मोबाइल और डिजिटल दुनिया में जी रही है। उनकी जिज्ञासाओं को ध्यान में रखते हुए पत्रिका में युवा-केन्द्रित स्तंभ जैसे “युवा धर्म संवाद”, “शंका समाधान”, और “नवचिंतन” प्रारंभ किए गए।

युवाओं को यह समझाना ज़रूरी है कि धर्म रूढ़िवाद नहीं, बल्कि आत्मविकास का मार्ग है। ‘दिव्य रश्मि’ ने यह कार्य पूरी गंभीरता से किया है। आज इसके पाठकों में बड़ी संख्या युवा छात्र-छात्राओं की है।

आज ‘दिव्य रश्मि’ न केवल बिहार या उत्तर भारत में, बल्कि देशभर में पढ़ी और सराही जाती है। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, बंगाल, असम, और यहां तक कि दक्षिण भारत तक इसके पाठक हैं।

इसके विशेषांक—जैसे “रामायण विशेषांक”, “गीता विशेषांक”, “नारी विशेषांक”, “गुरु पूर्णिमा विशेषांक”—ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डाला है। कई बार तो इसकी प्रतियाँ विदेशों तक भी पहुँची हैं।

यह पत्रिका अपने जनसरोकारों से कभी नहीं कटी। जब-जब देश में कोई आपदा आई—कोरोना महामारी, बाढ़, भूकंप—तब पत्रिका ने जागरूकता और सहायता की अपीलों के माध्यम से समाज को जोड़ा।

आज जब दुनिया डिजिटल होती जा रही है, तब ‘दिव्य रश्मि’ ने भी आधुनिक तकनीक को अपनाने की पहल की है। इसका ऑनलाइन संस्करण, ई-पत्रिका, और सोशल मीडिया उपस्थिति धीरे-धीरे पाठकों से और निकटता बना रही है।

यह समय की मांग है कि धर्म को डिजिटल रूप में भी प्रस्तुत किया जाए, ताकि युवा पीढ़ी उसे आसानी से समझ सके। 'दिव्य रश्मि' इस दिशा में अग्रसर है और आगामी वर्षों में यह डिजिटल प्लेटफार्म पर एक बेंचमार्क बन सकती है।

बारह वर्ष का यह सफर केवल समय का माप नहीं, बल्कि यह तप, साधना, समर्पण और सतत प्रयत्न का प्रतीक है। इस दौरान न जाने कितनी बाधाएँ आई होंगी—आर्थिक संकट, प्रिंटिंग समस्याएं, लेखकों की उपलब्धता, वितरण की कठिनाई—परंतु इन सबको पार करते हुए यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित होती रही।

डॉ. आर. डी. मिश्रा जी ने इस यात्रा को केवल सम्पादन का कार्य नहीं समझा, बल्कि इसे एक आध्यात्मिक यज्ञ माना। उनके हर शब्द में भक्ति है, हर पृष्ठ में दर्शन है, और हर अंक में एक संदेश है।

आज जब हम समाज में नैतिक पतन, मानसिक अवसाद, भौतिकता की अंधी दौड़ और आत्मिक रिक्तता को देख रहे हैं, तब ‘दिव्य रश्मि’ जैसी पत्रिका हमें उम्मीद की एक नई किरण दिखाती है। यह हमें सिखाती है कि ज्ञान, भक्ति, सेवा, और सहयोग से समाज को पुनः जाग्रत किया जा सकता है।

इस पत्रिका की भूमिका केवल धार्मिक सामग्री देने तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक क्रांति है—विचारों की, भावनाओं की, और चेतना की। यह एक ऐसी मशाल है, जो अंधेरे में राह दिखाती है।

अंत में मैं पुनः नतमस्तक होकर डॉ. आर. डी. मिश्रा जी, सम्पादकीय मंडल, सभी लेखक-पाठकों, और ‘दिव्य रश्मि’ परिवार के हर सदस्य का धन्यवाद करता हूँ, जिन्होंने इस आध्यात्मिक मिशन को जीवन दिया।

आइए, हम सब मिलकर इस प्रकाश यात्रा को निरंतर बनाए रखें। यह पत्रिका एक विचारधारा है, एक चेतना है, एक धारा है—जो हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी है जो स्वयं को, अपने धर्म को, और अपने समाज को बेहतर बनाना चाहता है। ‘दिव्य रश्मि’ की यह बारह वर्षों की रश्मि आने वाले वर्षों में और भी व्यापक हो—सार्वजनिक चेतना में, घर-घर में, और अंततः हृदय-हृदय में—यही हमारी हार्दिक कामना है।

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