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आशीर्वचन- कमलेश पुण्यार्क ‘गुरु जी’ द्वारा ‘दिव्य रश्मि’ के १२वें स्थापना वर्ष पर

आशीर्वचन- कमलेश पुण्यार्क ‘गुरु जी’ द्वारा ‘दिव्य रश्मि’ के १२वें स्थापना वर्ष पर


यह अत्यंत हर्ष और गौरव की बात है कि २८ मई २०२५ को “दिव्य रश्मि” पत्रिका अपने प्रकाशन के १२ वर्षों की उज्जवल यात्रा पूर्ण कर रही है। यह यात्रा मात्र वर्षों का लेखा-जोखा नहीं है, अपितु एक वैचारिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पुनर्जागरण की तीव्रगामी धारा है, जो निरन्तर धर्म, अध्यात्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद के सुवासित पुष्पों से जनमानस को सुगंधित करती चली आ रही है।

✦ बारह वर्षों की यात्रा: बाल्यकाल से यौवन की ओर


भारतीय शास्त्रों में बारह वर्षों की अवधि को विशेष महत्व प्राप्त है। यह कालखंड परिपक्वता की ओर यात्रा का प्रतीक है। आठवां वर्ष जहाँ पौगण्डावस्था की शुरुआत का द्योतक होता है, वहीं बारहवां वर्ष किशोरता से यौवन की दहलीज़ पर खड़े होने का संकेत देता है। यह वह अवस्था है जब साधक, संगठन अथवा संकल्प अपने स्वरूप की स्पष्ट पहचान प्राप्त करता है।

“दिव्य रश्मि” ने अपने बारह वर्षों की यात्रा में जिस निष्ठा, संवेदनशीलता और सत्यनिष्ठ पत्रकारिता का परिचय दिया है, वह आज के बाज़ारीकरण और मूल्यमुक्त मीडिया-संकट के युग में एक आशा की किरण है।

✦ सावरकर जी की दृष्टि और "दिव्य रश्मि"


वीर विनायक दामोदर सावरकर भारत के उन अग्रदूतों में से हैं जिन्होंने धर्म, राजनीति, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक चेतना को एकात्म रूप में देखा और साधा। उनका स्पष्ट मत था— "धर्म का राष्ट्र से पृथक अस्तित्व नहीं होता।"

“दिव्य रश्मि” का सम्पूर्ण स्वरूप सावरकर जी के इसी वैचारिक दर्शन से अनुप्राणित प्रतीत होता है। यह पत्रिका न तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अधर्म की पोषक बनती है, न ही राजनैतिक चाटुकारिता की गोदी में पलती है। यह आर्यावर्त की सनातन चेतना, भारत माता की वंदना, और सत्य आधारित निर्भीक पत्रकारिता की मूर्त अभिव्यक्ति बनकर उभरी है।

✦ वर्तमान सामाजिक संक्रमण और "दिव्य रश्मि" की भूमिका


आज का समाज एक विचित्र संक्रमणकाल से गुजर रहा है। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्मद्वेष, संस्कृति-विमुखता, चरित्रहीनता, भाषाई भ्रम, लैंगिक विकृति, और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं।

ऐसे विकट काल में “दिव्य रश्मि” एक दैदीप्यमान दीपशिखा बनकर जनमानस को आलोकित कर रही है। यह पत्रिका:

· भारत की सनातन परंपरा को आधुनिक विचारों के साथ जोड़ने का कार्य कर रही है।

· गाँव, गरीब, किसान, नारी, युवा और वंचित वर्ग की समस्याओं को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती है।

· भारत के स्वाधीनता संग्राम, स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रभक्तों के जीवन को नई पीढ़ी से जोड़ने का माध्यम बनती है।

· सामाजिक कुरीतियों, भ्रष्टाचार और सांस्कृतिक विचलनों पर निर्भीकता से कलम चलाती है।
✦ पत्रकारिता का धर्म: सत्य, निष्ठा और प्रतिबद्धता

आज जब अधिकांश पत्रिकाएँ और चैनल ‘ट्रायल बाय मीडिया’, ‘पेड न्यूज़’ और ‘सनसनीखेज़ हेडलाइंस’ के जाल में उलझकर पत्रकारिता को व्यापार बना चुके हैं, तब “दिव्य रश्मि” यह साबित कर रही है कि पत्रकारिता अभी भी राष्ट्रसेवा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम हो सकती है।

मैंने स्वयं अनेक ऐसी पत्रिकाओं को देखा है जिनका प्रवेशांक धूमधाम से प्रकाशित होता है, पर अगला अंक कभी पाठकों तक नहीं पहुँचता। यह चलन आज सामाजिक विश्वास के साथ एक गहरा मज़ाक बन चुका है। किंतु “दिव्य रश्मि” ने विनम्रता, निरंतरता और प्रतिबद्धता के साथ न केवल नियमित प्रकाशन किया है, बल्कि प्रत्येक अंक को विचार-संपन्न, आध्यात्मिक रूप से संजीवनी, और राष्ट्रचेतना से अनुप्राणित बनाया है।
✦ राष्ट्रीय संकट और पत्रिका की जिम्मेदारी

भारत में आज पाश्चात्य अनुकरण और संस्कृति-संकोच का गहरा संकट है। “लिव-इन”, “जेंडर न्यूट्रलिटी”, “ड्रग्स कल्चर”, “रियलिटी शो की विकृति”, “शिक्षा में राष्ट्रधर्म का अभाव” जैसी समस्याएँ युवा वर्ग को दिशाहीन बना रही हैं।

“दिव्य रश्मि” ने इन विषयों पर साहसिक विमर्श प्रस्तुत किया है। यह पत्रिका न केवल धार्मिक उपदेशों, संस्कृति के आलेखों और धर्मप्रवचनों की वाहिका है, बल्कि न्याय, नीति और नैतिकता की एक समाजशास्त्रीय पाठशाला बन चुकी है।
✦ बारह वर्षों की साधना: गुरु-परंपरा के प्रकाश में

भारतीय परंपरा में बारह वर्षों की तपस्या को सिद्धि की पूर्णाहुति माना गया है। ऋषियों ने बारह वर्षों तक गुरुकुल में विद्याध्ययन किया। राम ने बारह वर्षों तक वनवास की कठिन तपस्या के बाद रावण का वध किया। पांडवों की बारह वर्षों की अग्निपरीक्षा उन्हें महाभारत के युद्ध तक लाई।

“दिव्य रश्मि” का यह बारहवाँ वर्ष भी उस गुरु परंपरा की तपस्या जैसा है, जिसने संकल्प, श्रम और सेवा को साध्य बनाकर समाज में धर्म, ज्ञान और चेतना का व्रत लिया है।
✦ सावरकर जी की संकल्पशक्ति और दिव्य रश्मि

सावरकर जी ने अंडमान की सेल्यूलर जेल में भी राष्ट्रधर्म का दीप जलाए रखा। उन्होंने अपने विचारों को जेल की दीवारों पर उकेरा, उन्हें याद किया, कंठस्थ किया और भारत लौटकर फिर लिख डाला।

“दिव्य रश्मि” भी उस तपस्विता का प्रतिनिधित्व करती है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म और राष्ट्र की साधना नहीं छोड़ती।

यह पत्रिका उन कलमों को श्रद्धांजलि है जो बिकती नहीं, झुकती नहीं और सिर्फ सत्य के पथ पर चलती हैं।
✦ मै चाहता हूँ कि अब बारह वर्षों के बाद आगे की यात्रा में इन बातो का दयां देना चाहिए |अब जबकि “दिव्य रश्मि” अपने यौवन की ओर अग्रसर है, उसकी जिम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं:

· युवा वर्ग को पथदर्शी बनाना

· प्राचीन और आधुनिक भारत के बीच संवाद स्थापित करना

· स्वदेशी चेतना और आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को आगे बढ़ाना

· नारी सशक्तिकरण को सनातन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना

· भारतीय भाषाओं, ललित कलाओं, योग और आयुर्वेद को जनमानस से जोड़ना
✦ समापन : माँ भारती को समर्पण

“दिव्य रश्मि” का यह बारहवाँ स्थापना दिवस केवल पत्रिका की उपलब्धियों का उत्सव नहीं है, यह एक राष्ट्रधर्म की साधना का पड़ाव है।

आज मैं “दिव्य रश्मि” की सम्पादक मंडली, विशेषकर डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी को हृदय से साधुवाद देता हूँ, जिन्होंने इस पत्रिका को एक साधना बना दिया। यह केवल एक पत्रिका नहीं, एक आध्यात्मिक अभियान है, एक संस्कृतिक व्रत है, एक राष्ट्रधर्म यज्ञ है।

ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि “दिव्य रश्मि” ऐसे ही समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ आने वाले वर्षों में भारत के सांस्कृतिक नवजागरण की ध्वजवाहिका बने।

“भारत माता की जय।
वन्दे मातरम्।”
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