अनेक सम्मान प्राप्त विद्वान साहित्यकार, पत्रिका के सलाहकार आचार्य श्री राधा मोहन मिश्र माधव के विस्तृत विचार
जय भास्कर!
जब किसी साधना का आलोक समाज को दिशा देने लगे, जब कोई पत्र-पत्रिका केवल कागज़ पर छपी इबारत न होकर जनमानस के चिंतन और चरित्र को आलोकित करने का माध्यम बन जाए, तब समझिए कि वह एक युगांतरकारी प्रयास का रूप ले चुकी है। ‘दिव्यरश्मि’ पत्रिका की यात्रा इसी क्रम की प्रेरणादायी कहानी है, जो न केवल धर्म, साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रभक्ति की संवाहक बनी है, बल्कि आज के संक्रांति काल में आत्म-चिंतन, आत्म-जागरण और आत्मबल का भी उद्घोष करती है।
‘दिव्यरश्मि’ की रश्मियाँ ऐसे फूटीं और यों प्रसृत हुईं कि दूर-दूर तक आलोक में जगमगाने लगा। यह केवल एक साहित्यिक पत्रिका नहीं है, यह राष्ट्र की आत्मा का स्वर है, जो पाठकों के हृदय में तेजस्वी रश्मियों की भाँति प्रवेश करती है। इस पत्रिका ने अपने बारह वर्षों की साधना में जो पथ तय किया है, वह न केवल प्रशंसनीय है, बल्कि अनुकरणीय भी। पाटलिपुत्र की धरती पर, जो कि प्राचीन भारतीय संस्कृति की राजधानी रही है, वहाँ से प्रकाशित इस पत्रिका ने सचमुच एक सांस्कृतिक और वैचारिक तहलका मचा दिया है।
विशेष रूप से इस युग की पत्रकारिता में जहाँ अधिकतर माध्यम केवल सनसनी, व्यावसायिकता और लाभ केंद्रित रह गए हैं, वहाँ 'दिव्यरश्मि' एक तपस्विनी साध्वी की तरह अपने मूल्यों के साथ अडिग रही है। यह पत्रिका न बिकती है, न झुकती है और न ही थमती है। यह अपनी एक पवित्र साधना के रूप में सतत रूप से आगे बढ़ रही है।
यह सब संभव हो पाया है उसके अध्यवसायी और निष्ठावान सम्पादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी के कारण। उन्होंने जिस लगन, त्याग और ईमानदारी के साथ इस पत्रिका को दिशा दी है, वह वर्तमान समय में दुर्लभ है। उन्होंने स्वयं को साहित्य, संस्कृति और सनातन मूल्यों के प्रचार-प्रसार में अर्पित कर दिया है। उनके सतत प्रयास, श्रम और दूरदर्शी दृष्टिकोण ने ‘दिव्यरश्मि’ को साधारण पत्रिका नहीं, बल्कि विचार-क्रांति की मशाल बना दिया है।
एक ऐसा युग जहाँ धर्म और राष्ट्रीय मूल्यों को हास्यास्पद मानने वाले बुद्धिवादी स्वयं को आधुनिक कहते हैं, वहाँ डॉ. मिश्र जैसे विचारशील व्यक्ति का नेतृत्व प्रेरणादायी है। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिखाया है कि सच्ची साहित्यिक साधना केवल लेखनी भर से नहीं होती, उसमें संकल्प, समर्पण और साहस का त्रिवेणी संगम अनिवार्य होता है।
पत्रिका का प्रत्येक अंक विषयवस्तु, वैचारिक स्तर और प्रस्तुति के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट होता जा रहा है। वर्ष 2025 के इस विशेषांक में वीर सावरकर जी जैसे महान राष्ट्रनायक को केंद्र में रखकर जो वैचारिक समर्पण प्रस्तुत किया गया है, वह अद्भुत है। यह न केवल सावरकर जी के विचारों की पुनर्पुष्टि है, बल्कि युवाओं को प्रेरणा देने वाला कार्य भी। जब देश के स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को विकृत करने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है, तब ‘दिव्यरश्मि’ जैसे पत्र आहुति बनकर सच्चे इतिहास की लौ जलाते हैं।
सावरकर जी के विचार – जैसे कि "हिंदुत्व केवल धर्म नहीं, जीवन पद्धति है" – आज के युवाओं को भारतीयता के गर्व से भर देते हैं। ‘दिव्यरश्मि’ का यह प्रयास, उनकी वैचारिक विरासत को न केवल संजोने का है, बल्कि उसे यथायोग्य प्रसारित करने का भी।
यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि पत्रिका में कविताएँ, आलेख, लघुकथाएँ, संस्मरण, गीत, ग़ज़ल, यात्रा वृत्तांत जैसी साहित्यिक विधाओं को समुचित स्थान दिया गया है। यह किसी भी साहित्यिक मंच की विविधता का प्रमाण होता है। गद्य लेखन के इस कठिन दौर में, जहाँ सतही अभिव्यक्ति अधिक प्रचलित हो चली है, वहाँ यह पत्रिका गंभीर चिंतन को स्थान देती है।
पत्रिका का आवरण पृष्ठ भी उतना ही प्रभावशाली होता है, जितना उसकी अंतर्वस्तु। मई 2025 अंक का मुखपृष्ठ जिसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप और वीर सावरकर जैसे महापुरुषों को स्थान दिया गया है, एक सार्थक और सशक्त संदेश देता है – कि यह पत्रिका भारतीय अस्मिता की ध्वजवाहक है।
आचार्य होने के नाते, मेरा अनुभव रहा है कि समाज में विचारों का पतन मूल्यों के पतन से पूर्व होता है। यदि विचारों में तेजस्विता नहीं रही, तो राष्ट्र की अस्मिता क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में ‘दिव्यरश्मि’ का कार्य एक वैचारिक संजीवनी बन जाता है। इस पत्रिका ने समाज के हर आयाम को छुआ है – शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, धर्म, पर्यावरण, राजनीति और सबसे महत्वपूर्ण – आत्मचिंतन।
‘दिव्यरश्मि’ केवल एक साहित्यिक मंच नहीं है, यह एक आंदोलन है – जो पौरुष, पवित्रता और परम वैचारिकता का पर्याय बन गया है। यह यज्ञ निरंतर चलता रहे – यही मेरी मंगलकामना है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस बारहवीं वर्षगाँठ पर भी यह पत्रिका अपनी तेजस्वी परंपरा को और पुष्ट करेगी तथा आगामी वर्षों में यह एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक पत्रिका के रूप में स्थापित होगी।
डॉ. राकेश दत्त मिश्र जैसे समर्पित सम्पादक, उनकी अनुशासित और विचारशील टीम, तथा सभी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद!
जय मां भारती! जय सनातन! जय साहित्य!
- आचार्य राधा मोहन मिश्र ‘माधव’
साहित्यकार, मार्गदर्शक – दिव्यरश्मि
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