मूंगफली एवं आवारगी — रस एवं रसातल के बीच की रेखा
"मूंगफली और आवारगी में ख़राबी यह है कि आदमी एक दफ़ा शुरू कर दे तो समझ में नहीं आता, ख़त्म कैसे करे।"
यह पंक्ति हँसी की चादर में लिपटा हुआ एक गहरा सत्य है — सुख की आदत जब सीमाओं को लाँघती है, तो रस धीरे-धीरे रसातल बन जाता है।
मूंगफली — साधारण, सस्ती, पर मोहिनी। एक दाना टूटा नहीं कि दूसरा हाथ में आ जाता है। यह उन छोटी-छोटी प्रवृत्तियों की प्रतीक है जो हमें बाँधती नहीं, पर छूटने भी नहीं देतीं।
आवारगी — न किसी मंज़िल की चाह, न किसी राह का पता। यह मन की वह चंचलता है जो लक्ष्यहीन उड़ानों में स्वतंत्रता का भ्रम रचती है।
इन दोनों में आकर्षण है, पर नियंत्रण नहीं। शुरूआत में वे मित्र लगते हैं, धीरे-धीरे मन को खा जाते हैं।
और यही इनकी सबसे बड़ी विडंबना है — इनसे मोह भंग तब होता है जब बहुत कुछ हाथ से फिसल चुका होता है।
इसलिए आवश्यक है कि हम अपने सुखों को पहचानें, पर उन्हें बाँधें भी।
जीवन का रस वही है जो मर्यादा में हो।
वरना एक मूंगफली का दाना और एक आवारगी की साँझ — कब जीवन की दिशा बदल दें, पता नहीं चलता।
सीमित सुख ही सच्चा सुख है।
बाक़ी तो बस आदतें हैं, स्वाद के भेष में बंधन।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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