"स्वयं से संवाद"
जब-जब हमनेखुद को पाने के प्रयास किए,
भीतर के कोलाहल को
धीरे-धीरे से सुलझाया —
तब-तब
बाहरी शोर भी थम-सा गया ,
जैसे कोई तूफ़ान
दृढ़ संकल्प के सम्मुख
अपनी दिशा मोड़ गया ।
जब आत्मा ने
भीतर से आवाज़ दी,
और हमने
उसे निःशब्द होकर सुना,
तब बाधाएँ भी
थरथराईं हैं—
अपने पांव समेटकर
चुपचाप किनारे हो गई हैं,
जैसे जान गई हों
अब यह मार्ग में रुकने वाला नहीं।
हर बार
जब भय की आँखों में
आँखें डाल देख लिया,
वह एक धुंध बन
क्षितिज से ओझल हो गया।
और हर बार
जब स्वयं से कहा—
"मैं हूँ",
तब समूची सृष्टि ने
स्वीकृति में सिर हिलाया।
खुद को पाना
मंज़िल नहीं—
एक यात्रा है,
जिसके हर मोड़ पर
हम अपने ही प्रतिबिंब को
एक नए रूप में पहचानते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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