परिवर्तन की सांझ
न जाने किस अज्ञात सिहरन नेमुझसे मेरा 'मैं' चुरा लिया है,
अब वो चिर-परिचित साँझ भी
किसी परछाई की कथा सी लगती है।
वो गलियाँ, जहाँ स्वप्न झिलमिलाते थे,
अब निर्वर्ण धुंध में डूब गई हैं,
और पग, जो कभी उमंग से भरते थे,
आज निशब्द लौट आते हैं।
स्वर, जो मन के वीणा-पक्ष पर थिरकते थे,
अब अंत: कंदराओं में खो गए हैं,
आँखें अब भी नम हैं, पर अश्रु
जैसे तपते बादलों की संकोच-गाथा बन गए हैं।
रिश्ते अब अलिखित संवाद बन
मौन के गलियारों से गुजरते हैं,
और हृदय की थरथराती लौ
किसी अपूर्ण प्रार्थना-सी काँपती है।
शायद समय ने
मुझसे मेरा आत्म-संगीत छीन लिया है,
या यह आत्मा ही
अब किसी गहन अंतरिक्ष में खो गई है।
कुछ तो टूटा है—
शायद स्वर,
शायद सपने,
पता नहीं क्या बदला है,
बस अब पहले जैसा कुछ नहीं है।
या बस वह अनाम चिर-आकांक्षा
जो कभी ‘पहले जैसा’ कहलाती थी।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
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