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चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही

चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही

पुलकित प्रफुल्लित तन मन,
अंग सौष्ठव मस्त मलंग ।
रग रग पावनता निर्झर,
मृदुल मधुर प्रवाह अंतरंग ।
कर्दम संग नेह अठखेलियां,
परिवेश यौवन सरिता बहा रही ।
चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही ।।
मुखमंडल दिव्य दीप्ति,
नयन पटल प्रणय अथाह ।
हृदय बिंदु स्नेह सरोवर,
अपनत्व ज्योतित गाह ।
तृषा तृप्त निहार विहार,
संवाद परिणय कहा रही ।
चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही ।।
दृश विमल सौंदर्य आभा,
ज्योत्सना मस्ती मदमाती ।
टिम टिम करते तारें निहाल,
निशा संसर्ग ज्योत जलाती ।
हर पल अति आनंद सराबोर,
भाव भंगिमा मिलन सहा रही ।
चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही ।


अनुभूत दिव्य स्नेहिल प्रभा ,
निज गौरव अस्मिता भान ।
नव रंग रमा कोमलांग,
नवल धवल निष्कपट ज्ञान ।
पंकज प्राण प्रतिष्ठा अवलंब,
लावण्य ओज महा रही ।
चारु चंद्र सी चंचल किरणों से,मृणालिनी नहा रही
कुमार महेंद्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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