"बंधनों से परे"
बंधन हैं मन के सूक्ष्म तंतु,
जिनमें उलझा चेतन प्राणी।
संतृप्ति की तलाश में भटकता,
स्वप्न–आकांक्षाओं के मोहजाल में।
हर चाहत बन गई जंजीर,
हर अपेक्षा बनी गंभीर पीर।
जीव बने संसार में उलझे,
अपने ही भ्रम-जाल में फँसे।
जहाँ न चाह, न भय कोई,
जहाँ मौन भी कहे कथाएँ नव।
जहाँ न बंधन, न पहचान है,
वहीं शिव का असली स्थान है।
शिव वही हैं — बंधनों से परे,
स्वरूप से भी पूर्णतया मुक्त।
जो हैं शून्य भी, और अनंत भी,
न नाम, न रूप, न गति, न चाह।
अनुभव मात्र में गहन विलीन,
शिव वह जो मुक्त प्रवाह हैं।
चेतना की वह सच्ची राह हैं,
जो खुद को जान ले, शिव हो जाए —
जीवत्व को छोड़ अमरत्व पाए।
चलो, उस ओर कदम बढ़ाएँ,
भीतर के शिव को पहचानें।
बंधन टूटे, अज्ञान मिटे,
हम भी शिवमय हो जाएँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
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