"दुःख: मनुष्यत्व की कसौटी"
दुःख केवल एक मानसिक वेदना नहीं, बल्कि वह अग्नि है जो भीतर की अशुद्धियों को जलाकर आत्मा को शोधित करती है। यह अनुभव जीवन में न केवल गहराई लाता है, बल्कि उसे एक उदात्त स्वरूप भी देता है।जब कोई व्यक्ति दुःख से गुजरता है, तो उसका अंतर्मन संवेदनशील होता है—वह दूसरों के दुःख को भी सहज ही पहचानने और समझने लगता है। यही कारण है कि दुःख का संसर्ग परवर्ती व्यक्ति पर भी प्रभाव छोड़ता है। वह भी भीतर से बदलता है, नम्र होता है, करुणा से भरता है।
दुःख में मानव अहंकार गलता है, और एक निर्मल दृष्टि उभरती है। यह दृष्टि न केवल आत्मनिरीक्षण को जन्म देती है, बल्कि दूसरों के प्रति सहानुभूति और अपनापन भी जगाती है।
इसलिए, दुःख को केवल दुर्भाग्य या बोझ समझना उसकी महत्ता को कम आँकना है। वह तो जीवन का वह पाठ है जो हमें भीतर से निखारता है—शुद्ध करता है, और मनुष्य को मनुष्यता की ऊँचाई तक ले जाता है।
दुःख, यदि सहज भाव से जिया जाए, तो वह एक तप है—जो आत्मा को तेजस्वी बना देता है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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