"एक अनसुना पथिक"
मैं हूँ एक अनसुना पथिक,
छाँव-धूप के देश में खोया,
जहाँ पगचिह्न नहीं रहते,
सिर्फ स्मृतियों की धूल बिछी होती है।
कंधे पर विस्मरण का भार लिए
चलता रहा मैं निशा की नर्म छाया में,
न कोई स्वर साथ चला,
न कोई दृष्टि ठहरी मेरी पीठ पर।
मन की गहराइयों में कोई पीड़ा
फूटी एक कली की तरह,
जिसे कभी उगने नहीं दिया,
बस मौन से सींचता रहा वर्षों।
एक चित्र—जो न था पूर्ण,
एक छाया—जो न थी स्थिर,
एक स्पर्श—जो न था अपना,
इन्हीं अधूरे आलंबनों में जीता रहा मैं।
कभी-कभी किसी निशि के ह्रदय में
कोई स्वप्न चुपचाप जाग जाता,
और मैं पूछता—
क्या यह मैं हूँ? या मेरा बिखरा हुआ प्रतिरूप?
विरक्ति मेरा परिचय बना,
और संनाटा मेरी भाषा,
जिन्हें मैंने प्रेम कहा,
वे सब छूटती परछाइयाँ रहीं।
मैं नहीं जानता कौन था मेरा,
किंतु जिन्हें मैंने पुकारा
वे सब किसी और छोर पर
ज्योति की तरह झिलमिलाते रहे।
अब जब जीवन के अंतिम पहर में
कोई नाम तक नहीं शेष,
मैं बस एक स्पर्श की कामना लिए
समय की देहरी पर बैठा हूँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
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