“निशांत की ओर”
बहु दूर चला मैं स्वप्न-छाया की छांव तले,काँटों पर भी मुस्कान लिए—
आकांक्षाओं की सीपी चुनता रहा।
हर तृष्णा एक ओस-कण सी,
सूर्य-किरणों से पूर्व ही विलीन!
पाया हुआ भी खोया ही सा लगा
मानव की प्यास, क्या कभी बुझी?
मन का पात्र
सदियों से भरता चला आया,
पर एक दीप —
संतोष का —
न जला, न ही उजास दिया ।
आज लगता है…
सब कुछ पा लेने के उपरांत
मैं रिक्त हो चला हूँ।
इतना क्लांत कि चाहता हूँ
एक सघन निद्रा की चादर,
जिसके आँगन में
कोई स्वर न हो,
न कोई पीड़ा, न प्रार्थना…
केवल
वह अंतर की अगाध शांति—
जिसमें मौन
बोलता है स्पष्टतम भाषा में
और हो चिरस्थाई विश्रांति।
शब्द नहीं,
पर मन की वीणा स्वयं झंकृत हो उठती है,
आत्मा—
किसी अज्ञात वंशी की टेर में—
अपना रहस्य खोलती है।
वह स्वर
जो ब्रह्मांड से परे से आता है,
जहाँ कोई ध्वनि नहीं,
फिर भी—
सब कुछ सुना जा सकता है।
अब नहीं चाहिए मुझे
कोई पथ, कोई संग्राम,
न किसी विजय की उत्कंठा।
अब मैं विलीन होना चाहता हूँ
उस असीम मौन में—
जहाँ "मैं" भी नहीं बचता,
केवल
प्राची का अंतिम आलोक
और आत्मा की निशब्द मुस्कान।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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