दिव्य रश्मि पत्रिका: एक युगांतरकारी यात्रा
दिव्य रश्मि कोई साधारण पत्रिका नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा जीवंत मंच है जो व्यक्ति को समाज, संस्कार, विचार और उसके सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ने का एक सशक्त और प्रभावशाली माध्यम है। यह पत्रिका केवल लेखों और विचारों का संग्रह मात्र नहीं, बल्कि एक मिशन है, एक चेतना है, जो पाठकों के मन-मस्तिष्क में इंसानियत, धर्म और संस्कार की लौ प्रज्वलित करती है।
हमारे विचार से, दिव्य रश्मि एक ऐसी पत्रिका है जो न केवल लोगों को ज्ञान और चेतना प्रदान करती है, बल्कि उन्हें उनके धर्म, संस्कृति और मूल्यों के प्रति सजग और जागरूक भी बनाती है। इस पत्रिका के माध्यम से जो विचार प्रवाहित होते हैं, वे केवल शब्द नहीं होते, बल्कि भावनाओं, आस्था और विश्वास का सागर होते हैं। यह पत्रिका लोगों को यह सिखाती है कि धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला है, व्यवहार का अनुशासन है, और समाज के प्रति जिम्मेदारियों को निभाने का एक मार्ग है।
दिव्य रश्मि के संस्थापक आदरणीय पूज्य सुरेश दत्त मिश्र जी ने जिस भाव और निष्ठा से इस पत्रिका की नींव रखी, वह अत्यंत प्रेरणादायक है। मिश्रा जी की साहित्यिक यात्रा, विशेषतः मगही भाषा में रामायण और अनेक कविताओं की रचना, हमें यह संदेश देती है कि अपनी मातृभाषा में धर्म और संस्कृति का प्रचार-प्रसार ही सच्चा राष्ट्रप्रेम है। उनके रचनात्मक प्रयासों से हमें भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि हम उनकी काव्य रचनाओं को पढ़ सकें और उनसे प्रेरणा ले सकें। मगही में रामकथा जैसे महान ग्रंथ की रचना करना न केवल भाषा के प्रति प्रेम है, बल्कि यह संस्कृति और सनातन मूल्यों की रक्षा का भी एक महान प्रयास है।
जब मेरी भेंट आदरणीय संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी से हुई, तो उनके विचार, उनकी दूरदर्शिता और भावनाओं ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। उन्होंने अपने निजी जीवन, परिवार और समय की परवाह किए बिना एक ऐसे मिशन को अपना जीवन समर्पित कर दिया, जो आज एक प्रकाशपुंज बनकर समाज को दिशा दिखा रहा है। डॉ. मिश्रा जी का यह दृढ़ निश्चय और संकल्प कि समाज में धर्म, संस्कृति, विचार और संस्कार पुनः स्थापित हों, आज की विकृत होती सामाजिक व्यवस्था में एक क्रांति का आह्वान है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिव्य रश्मि एक पत्रिका नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना हेतु कार्यरत है। ऐसे समय में जब आधुनिकता की चकाचौंध में लोग अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं, दिव्य रश्मि उन जड़ों को फिर से मजबूती देने का कार्य कर रही है। यह पत्रिका उन मूल्यों की बात करती है जो हमें हमारे पूर्वजों से मिले, और जिनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
एक साहित्यकार के रूप में यह कार्य कि विभिन्न विद्वानों, चिंतकों और साहित्यकारों के उत्तम विचारों को संग्रहित कर, उन्हें एक मंच के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाना, एक बहुत ही कठिन कार्य है। लेकिन डॉ. राकेश दत्त मिश्रा जी और उनकी समर्पित टीम ने इसे संभव कर दिखाया। यह प्रयास न केवल सराहनीय है, बल्कि अनुकरणीय भी है। समाज को दिशा देने वाला साहित्य केवल पुस्तकालयों में बंद नहीं रहना चाहिए, वह जनमानस तक पहुँचना चाहिए, और यही कार्य दिव्य रश्मि पत्रिका कर रही है।
दिव्य रश्मि की यह 12 वर्षों की यात्रा वास्तव में एक युग की यात्रा है। यह केवल समय की गणना नहीं, बल्कि एक वैचारिक और सांस्कृतिक सफर है। इस सफर की शुरुआत कठिनाइयों, आर्थिक चुनौतियों, संसाधनों की कमी और सामाजिक उपेक्षा के बीच हुई थी। लेकिन जिनके भीतर संकल्प हो, जिनके विचारों में स्पष्टता हो और जिनके हृदय में सनातन धर्म के लिए अग्नि समान ज्वाला हो, उन्हें कोई बाधा नहीं रोक सकती।
इन बारह वर्षों में दिव्य रश्मि ने न केवल अपनी पहचान बनाई, बल्कि समाज के हर वर्ग तक अपनी बात पहुँचाई। ग्रामीण हो या शहरी, युवा हो या वृद्ध, विद्यार्थी हो या अध्यापक – हर कोई इस पत्रिका से कुछ न कुछ सीखने, जानने और समझने का अनुभव करता है। इस पत्रिका की सामग्री केवल ज्ञानवर्धक नहीं होती, बल्कि यह आत्मा को जागृत करने वाली होती है।
मैं विशेष रूप से उन सभी सदस्यों, लेखकों, संपादकों, मुद्रकों और वितरकों का हृदय से धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिन्होंने पत्रिका के पहले दिन से लेकर आज तक इसका साथ दिया। वे लोग जो प्रकाश में नहीं हैं, लेकिन जिनकी मेहनत के बिना यह पत्रिका संभव नहीं होती, वे सच्चे नायक हैं। विशेष रूप से प्रारंभिक दिनों में जब हर अंक को निकालना एक युद्ध जैसा लगता था, तब इन सभी का समर्पण, साहस और मेहनत ही थी जिसने दिव्य रश्मि को एक स्थायित्व दिया।
हमारा यह प्रयास सदैव रहेगा कि दिव्य रश्मि समाज के भीतर धर्म, संस्कार और संस्कृति की पुनर्स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाए। हमारा यह भी लक्ष्य रहेगा कि यह पत्रिका केवल भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के कोने-कोने में बसे भारतीयों तक पहुँचे, और उन्हें उनकी जड़ों से जोड़ सके।
यह पत्रिका एक माध्यम है आत्म-मंथन का, आत्म-जागरण का और आत्म-निर्माण का। यह हमें यह सिखाती है कि हम कौन हैं, हमारे संस्कार क्या हैं, और हमारा भविष्य किस दिशा में जाना चाहिए। दिव्य रश्मि केवल एक पत्रिका नहीं, एक दीपक है – जो अंधकार में डूबे समाज को प्रकाश की ओर ले जाने का कार्य कर रही है। यह दीपक कभी बुझना नहीं चाहिए, और इसके लिए हम सबका कर्तव्य है कि हम इसे जलाए रखें, इसकी लौ को प्रज्वलित रखें।
अंत में, मैं पुनः अपने विचारों को समेटते हुए यह कहना चाहूँगा कि दिव्य रश्मि की यह 12 वर्षों की यात्रा वास्तव में एक ऐतिहासिक और प्रेरणास्पद यात्रा है। यह यात्रा केवल शब्दों की नहीं, बल्कि विचारों, मूल्यों और संकल्पों की यात्रा है। यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि यदि उद्देश्य पवित्र हो, विचार सच्चे हों और संकल्प अडिग हो, तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है।
मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे इस पत्रिका से जुड़ने का अवसर मिला, और मैं यह आशा करता हूँ कि आने वाले वर्षों में भी हम सभी इस पत्रिका के माध्यम से समाज को नई दिशा देते रहेंगे, संस्कृति और धर्म की रक्षा करते रहेंगे, और अखंड भारत की स्थापना में अपना योगदान देते रहेंगे।
जय सनातन! सुबोध कुमार सिंह उप-संपादक दिव्य रश्मि, प्रेस पटना
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