अजनबी खास बन गया
वाकई अजनबी खास बन गया ,या अजनबी ये उदास बन गया ।
छुपा अजनबी था या गजनवी ,
आतंक के आड़ स्वयं तन गया ।।
कब तक बने रहोगे तू अजनबी ,
अजनबी खुलकर सामने तो आ।
देख ले राष्ट्र अब तेरा भी सूरत ,
अपने आप पटखनी तो न खा ।।
अजनबी अब न बनेगा अजनबी ,
तेरा भी मुखौटा ये हट जाएगा ।
दिखेगा जब काला चेहरा तेरा ,
संदेह रूपी बादल फट जाएगा ।।
कबतक छुपकर रहोगे तू सूर्य ,
इस काले बादल के तू आड़ में ।
तूफान चलेगा बादल ये छॅंटेगा ,
अग्नि जलेगा अब तेरे हाड़ में ।।
अपने होकर बने हो अजनबी ,
अजनबी बनकर ही जाओगे ।
परिचित बन रहो अपरिचित ,
मौत के समय मुॅंह दिखाओगे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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