भगवान परशुराम - कल्कि अवतार के गुरु होंगे
दिव्य रश्मि पत्रिका के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा जी की कलम से |त्रेतायुग के मध्य में हुआ था भगवान परशुराम का जन्म। भगवान परशुराम के पिता महान तपस्वी और ज्ञानी ऋषि महर्षि जमदग्नि और माता अत्यंत धार्मिक और सशक्त व्यक्तित्व की धनी माता रेणुका थी। भगवान परशुराम के जन्म से ही उनके भीतर अद्भुत विशेषताएँ विद्यमान थी। बचपन में ही वे तेजस्वी, बुद्धिमान और अत्यधिक साहसी थे। उनके पिता महर्षि जमदग्नि ने उन्हें एक से एक कठिन तपस्या के सिद्धांत सिखाए, जबकि उनकी माँ रेणुका ने उन्हें शील और धर्म का पाठ पढ़ाया।
उनका बाल्यकाल की एक प्रसिद्ध घटना है, जब एक बार वे अपने पिता के साथ जंगल में गए थे। उस समय, उन्होंने अपने पिता से अनेकों ब्राह्मणों के महान कार्यों के बारे में सुना। यह सुनकर उनके मन में यह दृढ़ निश्चय हुआ कि वह भी ब्राह्मणों का आदर्श बनने के लिए कठोर तपस्या करेंगे।
भगवान परशुराम ने बचपन से ही भगवान शिव के प्रति अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति रखते थे। एक बार, उन्होंने भगवान शिव के दर्शन की इच्छा व्यक्त की और गहरे वन में कठोर तपस्या शुरू कर दी। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि देवता और ऋषि-मुनि भी आश्चर्यचकित थे। भगवान शिव उनके तप से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए। भगवान शिव ने परशुराम से कहा कि "तुमने जिस तरह से तपस्या की है, वह अद्भुत है। तुम चाहते हो कि तुम्हे शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो, ताकि तुम अधर्म का नाश कर सको?" परशुराम ने उत्तर दिया कि "हे भगवान, मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है ताकि मैं इस संसार से अधर्म और असत्य का नाश कर सकूं।" भगवान शिव ने उन्हें अपना दिव्य अस्त्र 'परशु' (कुल्हाड़ी) दिया, जो असुरों के वध के लिए अत्यंत शक्तिशाली था। साथ ही उन्होंने परशुराम को शास्त्रों और शस्त्रों का गहन ज्ञान भी दिया। भगवान शिव की इस कृपा से परशुराम का बल और ज्ञान दोनों में वृद्धि हुई, और वह एक विद्वान और महान योद्धाबन गए।
भगवान शिव से प्राप्त इस दिव्य अस्त्र के साथ परशुराम ने क्षत्रियों का संहार करना शुरू किया। यह समय था जब पृथ्वी पर अत्याचारी और भ्रष्ट क्षत्रिय राजाओं का शासन था, जो धर्म के मार्ग से भटक चुके थे। उनके अत्याचारों से पीड़ित जनता के आक्रोश का सामना करने के लिए अपना दिव्य अस्त्र 'परशु' (कुल्हाड़ी) उठ उठा लेने का निश्चय किया।
एक समय एक घटना ने उनका मन विचलित कर दिया। महर्षि जमदग्नि की गाय, जो एक दिव्य गाय 'कामधेनु' थी, को राजा सहस्त्रार्जुन ने बलात्कृत कर लिया था। जब परशुराम को यह जानकारी मिली, तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह इस अत्याचार का प्रतिशोध लेंगे। परशुराम ने सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया और उसके बाद 21 बार पृथ्वी पर स्थित सभी क्षत्रियों का संहार किया। उनके इस संहार से पृथ्वी पर शांति का माहौल बन गया। यह युद्ध केवल निजी प्रतिशोध नहीं था, बल्कि परशुराम का मानना था कि धर्म की रक्षा के लिए यह आवश्यक था। उनका यह युद्ध धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष था। यह संघर्ष केवल राजा-महाराजाओं से नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी के धर्म के साथ था।
भगवान परशुराम के जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने अनेक महान शिष्यों को शस्त्रविद्या में शिक्षा दी। इनमें से प्रमुख शिष्य थे, भीष्म पितामह, जो महाभारत के सबसे महान योद्धा थे, भगवान परशुराम के प्रमुख शिष्य थे। भीष्म पितामह ने भगवान परशुराम से शस्त्रों का अभ्यास और युद्ध की कला सीखी। भगवान परशुराम ने उन्हें अत्यधिक शक्तिशाली दिव्यास्त्रों के प्रयोग का ज्ञान दिया, जिसे उन्होंने महाभारत के युद्ध में प्रयोग किया।
द्रोणाचार्य, जो पांडवों और कौरवों के गुरु थे, वे भगवान परशुराम के शिष्य थे। द्रोणाचार्य ने भी भगवान परशुराम से शस्त्रविद्या का ज्ञान लिया था। द्रोणाचार्य ने इसे पांडवों और कौरवों को सिखाया, जिससे महाभारत के युद्ध में, दोनों पक्षों के पास, शास्त्रों का अद्भुत ज्ञान था।
कुंती पुत्र कर्ण, जो महाभारत के युद्ध में एक महान योद्धा थे, उन्होंने भी भगवान परशुराम से शस्त्रविद्या सीखी थी। हालांकि, कर्ण ने परशुराम से ब्राह्मण बनकर विद्या प्राप्त की थी, और जब परशुराम को यह पता चला कि कर्ण क्षत्रिय हैं, तो उन्होंने उसे शाप दिया कि वह सबसे महत्वपूर्ण समय पर अपनी विद्या भूल जाएगा। यह शाप कर्ण के लिए महाभारत के युद्ध के निर्णायक क्षणों में प्रमाणित हुआ।
भगवान परशुराम का जीवन न केवल युद्ध और शस्त्र विद्या से भरा हुआ था, बल्कि उन्होंने तपस्या में भी अपना समर्पण किया था। जब उन्होंने पृथ्वी से अधर्मी क्षत्रियों का संहार किया, तब उन्होंने शेष जीवन तपस्या के लिए समर्पित कर दिया। भगवान परशुराम को भगवान विष्णु ने चिरंजीवी बनने का वरदान दिया था। इस वरदान के अनुसार, वह इस ब्रह्मांड के अंत तक जीवित रहेंगे। यह भी कहा जाता है कि वे महेंद्रगिरि पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं और समय-समय पर अपने भक्तों के दर्शन के लिए प्रकट होते हैं।
भगवान परशुराम का एक अत्यंत प्रसिद्ध संवाद भगवान श्रीराम से हुआ था। जब श्रीराम ने शिवधनुष तोड़ा और जनकपुर में शिवधनुष की परीक्षा ली, तब भगवान परशुराम वहाँ आए। उन्होंने श्रीराम से कहा कि "तुमने शिवधनुष तोड़ा है, यह अत्यधिक शक्ति का प्रतीक है। लेकिन तुमसे पहले मैंने ही उस धनुष का प्रयोग किया था।" भगवान श्रीराम ने अत्यधिक विनम्रता से भगवान परशुराम से कहा कि "आपके सामने मेरा कोई भी बल नहीं ठहरता। आप तो भगवान शिव के प्रिय शिष्य हैं। मैं केवल एक साधारण योगी हूं।" भगवान परशुराम ने भगवान श्रीराम के विनम्रता को देखकर प्रसन्न हो गए और उन्हें आशीर्वाद दिया। इस संवाद से यह सिद्ध होता है कि भगवान परशुराम ने शास्त्रों, शस्त्रों और शक्ति के बावजूद हमेशा धर्म का पालन किया और अपने ज्ञान और अनुभव का सही मार्गदर्शन किया।
भगवान परशुराम ने समाज में कई बदलाव किए थे। उनके द्वारा स्थापित की गई विधियाँ और रीति-रिवाज आज भी कई क्षेत्रों में प्रचलित हैं। वे एक महान शिक्षक और नेतृत्वकर्ता थे। उन्होंने न केवल शस्त्र विद्या को महत्व दिया, बल्कि धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने का भी महत्व समझाया। उन्हें केरल, गोवा और कोंकण में एक प्रबंधक के रूप में सम्मानित किया गया। कहा जाता है कि उन्होंने इन क्षेत्रों को समुद्र से भूमि वापस प्राप्त करने के लिए अपने दिव्य अस्त्र का प्रयोग किया था और इन स्थानों पर ब्राह्मणों और ऋषियों के लिए आश्रमों का निर्माण किया था।
भगवान परशुराम के बारे में भविष्यवाणी किया गया है कि वे कल्कि अवतार के गुरु होंगे। मान्यता है कि कल्कि अवतार भगवान विष्णु का अंतिम अवतार होगा, जब कलयुग का अंत होगा और सत्ययुग की पुनः स्थापना होगी। भगवान परशुराम इस समय तक चिरंजीवी रहेंगे और कल्कि को शस्त्रों की शिक्षा देंगे। यह भूमिका भगवान परशुराम के अद्भुत ज्ञान और शक्ति का प्रमाण है।
भगवान परशुराम का जीवन सदैव प्रेरणादायक है। भगवान परशुराम धर्म, शास्त्र, शस्त्र, और तपस्या के प्रतीक थे। उन्होंने यह सिखाया था कि शक्ति का प्रयोग केवल धर्म की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए, न कि स्वयं के लाभ के लिए। उनका जीवन संघर्ष और बलिदान का प्रतीक है। भगवान परशुराम का जीवन हर एक व्यक्ति के लिए एक आदर्श है जो हमें सिखाता है कि जीवन में संघर्ष, संयम, और कर्तव्य का पालन कैसे किया जाए। ————————————
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