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चाँदनी जब द्वार मेरे

चाँदनी जब द्वार  मेरे

डॉ रामकृष्ण मिश्र
चाँदनी जब द्वार  मेरे   उतर आएगी  
तुम्हारे पदचाप पढ़ने  निकल जाऊँगा।। 

मलय की गंधिल हवा ने छू कहा था जब
पश्चिमी  आकाश  का अंतर मुंदेगा तब। 
शाख के चंचल सुरों के मंद होने पर
तुम्हारा आभास गढ़ने निकल जाऊँगा।। 

दिशाएँ निश्शब्द भी कुछ कह रही सी हैं
जहाँ सरिताएँ   ‌ठगी भी  बह रही सी हैं। 
कछारों पर  घूमते अनुरायियों के मन
तुम्हारे  निस्श्वास  छूने निकल जाऊँगा। 

अब नहीं अंतर कलह की धमक चमकेगी
यहाँ  एकल  सिंधु  लहरें  वृथा   लहसेंगी‌। । 
थाल में लघु दीप बारे गगन का उत्सव
तुम्हारा    विश्वास   पढ़ने निकल  जाऊँगा।।
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