तुम्हारे नाम
डा उषाकिरण श्रीवास्तव
पन्ना-पन्ना लिखती गई मैं
मिला कहीं न पूर्ण विराम,
आज सबेरे इस पुस्तक को
कर दिया सिर्फ तुम्हारे नाम।
शब्द-शब्द से आह टपकता
हुआ न नयनन को विश्राम,
कभी लाल कभी काली स्याही
कितने-शहर वो कितने गांव।
परत-दर-परत बढता ही गया
भटकती रही मैं चारों धाम,
आज अचानक तेरे दर-पर
ठिठक गया है मेरा पांव।
खोल न देना पिछला पन्ना
तिल-तिल जलते सुबह-शाम,
सबसे उपर के पन्नों में
सिर्फ लिखा तेरा ही नाम।
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मिला कहीं न पूर्ण विराम,
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हुआ न नयनन को विश्राम,
कभी लाल कभी काली स्याही
कितने-शहर वो कितने गांव।
परत-दर-परत बढता ही गया
भटकती रही मैं चारों धाम,
आज अचानक तेरे दर-पर
ठिठक गया है मेरा पांव।
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