चाहे जितना दर्द भरो तुम
डॉ रामकृष्ण मिश्र
दैहिक ही सब रह जाएगा।। अवशोषण के संविधान का भी शोधन हो
कौन कहेगा किसे अनश्रु विकल रोदन हो।
अति बौद्धिकता के प्रपंच के अभिकर्ताओं
यह झूठा प्रासाद किसी दिन ढह जाएगा।।
अपने विफल परिश्रम को स्वीकार रहा हूँ
किन्तु आज तक नहीं कभी बेकार रहा हूँ।
मेरी आँखों में समष्टि का ही सपना है
ठीक समय पर सारी बातें कह जाएगा।।
अपने आँगन की चिकनाई चूम रहे जो
मात्र आत्म श्लाघा में प्रतिपल झूम रहे जो।
बदलेगा मौसम का मन पर मिथक रहेगा
शायद धरती का रौरव भी बह जाएग।।
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