धूप में जलते हैं खुद और पाँव में छाले पड़े,
चलते रहें रात दिन, जितना भी चलना पड़े।
चिन्ता यही रहती है बस, परिवार खुशहाल हो,
बच्चों को रोटी मिले, चाहे भूखा खुद सोना पड़े।
रोते बहुत वह भी मगर, आँसू नजर आते नही,
भीतर से कोमल मगर, दर्द अपना कहते नही।
पी लेते हलाहल सारा, भोले शंकर की तरह,
थाम लेते वेग खुद पर, मुसीबतों से डरते नही।
जब तलक वह ज़िन्दा रहे, हम बच्चे बने रहे,
मुश्किलों के सामने वह, ढाल बनकर खड़े रहे।
बस एक ही पल में हम, फलक से धरा आ गिरे,
बेबस से लगने लगे, जो कल तक अकड़ अड़े रहे।
हमारे पिताजी के निधन पर परिवार के दुख की घड़ी में सभी मित्रों, परिवार जनों, समाज के महानुभावों द्वारा जो संवेदनाएँ एवं सहयोग किया गया, उससे हमें दुख की घड़ी से उबरने में मानसिक संबल मिला।
मीडिया जगत से भी हमारे पिताजी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विभिन्न समाचार पत्रों में स्थान दिया गया।
हम सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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