द्रोपदी का दर्द
मेरे दिलमें जो होता है
वो ही बात कहता हूँ।
कहकर दिलकी बातों को
सुकून बहुत मिलता है।
इसलिए इस जमाने में
मुझे कम पसंद करते है।
पर जो पसंद करते है
वो बहुत अच्छे होते है।।
मैं खुद को बदल नहीं सकता
तो जमाने को कैसे बदलूगा।
और अपनी बातों को मैं
जमाने को कैसे कहूंगा।
जबकी खुदका दिल नहीं
रहता है स्वयं के बस में।
तो औरों से क्या उम्मीदें
हम आप कर सकते है।।
बड़ा ही दर्द है लोगों
जमाने की सोच में।
जो न खुद जीते है
न औरो को जीने देता।
लगा है घाव दिल पर जो
उसे वो और खुरोंदेगे।
पर उस पर महलम वो
कभी नहीं लगाएंगे।।
द्रोपदी का कसूर भी
कुछ इसी तरह का था।
जो खुदको रोक न पाई
और जुबान से कह दिया।
और फिर किस तरह का
युध्द हुआ था उस युग में।
पूरा वंश उजड़ गया
उसके कहने भर से।।
जय जिनेंद्रसंजय जैन "बीना"
मुंबई
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