'कमल' की लेखनी का विद्रोह'

'कमल' की लेखनी का विद्रोह'

धिक्कारती है 'कमल' की लेखनी,
सत्तालोलुप भारतवर्ष के नेताओं को,
जिनके लिए चुनाव का हेतु सेवा नहीं,
मध्यमवर्ग को लूटना और भ्रष्टाचार है।

यह कविता, एक विद्रोह है,
सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ,
भ्रष्टाचार और लूट के खिलाफ,
आत्ममुग्ध नेताओं के ख़िलाफ़।

कमल की लेखनी, स्याही से तलवार बन,
उजागर करती है इन नेताओं का कर्म,
जो लालच में डूबे, जनता को भूल गए,
साधते हैं सिर्फ अपना ही स्वार्थ-सम्मान।

चुनाव, जनता का है अधिकार,
सेवा का माध्यम, यही सच्चा है सार,
पर इन नेताओं के लिए, यह है लूट का खेल,
बेचते हैं वादे, चुनाव बना धोखे का खेल।

मध्यमवर्ग, वैसे तो देश की रीढ़ है,
इनकी मेहनत से, विकास की गति बढ़ती है,
पर इन नेताओं ने, ना समझी इनकी पीढ़ है,
कर दिया है इन्हें लाचार और बेबस।

भ्रष्टाचार, मानो इनका धर्म है,
हर काम में, लेन-देन का बाजार गर्म है,
न्यायपालिका-कार्यपालिका इनकी लौंडी बनी है,
बेबस है जनता, इनके जुल्मों से तंग है।

कमल की लेखनी, आवाज बनकर उठती है,
इन नेताओं के पापों का पर्दाफाश करती है,
जनता को जगाती है, एकजुट करती है,
बदलाव की लहर लाने का आह्वान करती है।

. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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